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है। उसमें कचास हो तो अपनी पात्रता बढानी। आत्मार्थताका मुख्य प्रयोजन (होना चाहिये)। आत्मार्थताको कोई हानि पहुँचे ऐसी मर्यादा तोडकर ऐसे विचार आत्मार्थीको होते नहीं।
मुमुक्षुः- .. जब मोक्षमें जाते हैं, वहाँ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकायका अंत आ जाता है, वहाँसे आगे नहीं जा सकते। बराबर? धर्मास्तिकाय जो गतिमें उदासीन सहायतारूप होता है, वहाँ स्थिर हो जानेके बाद धर्मास्तिकाय कैसे मदद करता है?
समाधानः- वह तो ऐसा है कि जो चलते हुए गतिमान हो उसे निमित्त होता है। गतिमान न हो उसे निमित्त होता है, ऐसा नहीं है। जो गतिमें हो उसे निमित्त होता है। जो चलनेके बाद स्थिर हो उसे अधर्मास्तिकाय निमित्त बने। गतिमानको धर्मास्तिकाय निमित्त होता है। ऐसा होता है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। ...
मुमुक्षुः- विहार करते हैैं तब एक भाई छटपटाते हैं, गर्मीका दिन था, छटपटाता है और कहता है कि बचाओ, बचाओ, बचाओ, मुझे थोडा पानी दो। भावलिंगीके पास कमंडलु उपकरण होता है, उसमें पानी था। तो उन्हें देना योग्य है या अयोग्य है? पानी देना चाहिये कि नहीं देना चाहिये? विचित्र प्रश्न पूछ रहा हूँ।
समाधानः- भावलिंगी मुनि स्वयं तो भिन्न होकर स्वरूपमें लीन होकर बसते हैं। सर्व प्रकारके विकल्प छूट गये हैं। भिन्न हो गये हैं। सर्व कायासे छूट गये हैं। लौकिज्ञक कायासे छूट गये हैं। ऐसे कायामें उन्हें उस प्रकारका विकल्प नहीं आता है। उनका उपयोग बाहर नहीं होता है। उस जातके कायामें वे जुडते नहीं। छूट जाते हैं। यथार्थ मुनिदशा छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। ऐसे कायासे छूट गये हैं। वह सब कार्य गृहस्थोंके हैं। उस कार्यसे छूट गया है।
जिसने यथार्थ मुनिपना अंगीकार किया, छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हुए, केवलज्ञानकी तलहटी, केवलज्ञान पूर्ण कृतकृत्य दशाकी तलहटीमें खडे हैं, मुनिदशा यानी छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते मुनिराज हैं। ऐसे बाह्य कायासे छूट गये हैं। और उस जातका विकल्प नहीं होता है, भिन्न हो गये हैं।