Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

१२

समाधानः- लक्ष्य छुडाते हैैं। लक्ष्य छुडाकर अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि करवाते हैं। ज्ञान तो सबका (होता है)। अनादिअनन्त है उस पर दृष्टि कर, ऐसा कहना है।

मुमुक्षुः- गुरुदेवकी उस पर बहुत प्रसन्नता थी। इसलिये लगा, गुरुदेवका जाननेपर बहुत (वजन था)।

समाधानः- तू सब जान, तू कर्ता नहीं है। जान, ज्ञायक हो। सब जान। अधूरी पर्याय, पूर्ण पर्याय उन सबका तू जाननेवाला ज्ञायक है। तू सब जान।

मुमुक्षुः- जाननेकी पर्यायको भी करनी नहीं है, ऐसे लिया। उसका जाननेवाला है, ऐसे लिया। इसलिये बहुत..

समाधानः- जाननेवाली पर्यायका भी तू जाननेवाला है। इसलिये उसमें व्यवहार नहीं है, ऐसा कहनेका आशय नहीं है। परन्तु वस्तुदृष्टि करवानी है। वस्तुका मूल स्वरूप बताते हैं। इसलिये वह पर्याय आत्मामें नहीं है, ऐसा नहीं। वह जाननेकी पर्याय उसमें होती नहीं, ऐसा नहीं है। वह सब व्यवहार है, लेकिन तू दृष्टि... मूल वस्तुका स्वरूप बताते हैं। अकेला ऐसा हो तो ये बन्धके विभावभाव होते ही नहीं। तो अकेली मोक्षकी पर्याय हो। यदि ऐसा हो तो ये जाननेका स्वभाव जो दिखता है, वह भी... आत्मा कुछ जान सके नहीं। यदि जाननेका स्वभाव ही न हो तो। वह सब जाननेकी पर्याय है। परन्तु तू दृष्टि तेरे स्वकी ओर कर, ऐसा कहना है।

तेरा स्वपरप्रकाशक स्वभाव है, परन्तु दृष्टि तेरे द्रव्य पर कर, ऐसा कहना है। आचार्यदेव, गुरुदेव सब एक ही बात करते हैं। दृष्टि तू शुद्धात्मा पर कर। पर्याय उसमें होती है, साधकदशा उसमें होती है, स्वपरप्रकाशक तेरा स्वभाव है। परन्तु दृष्टि तू परसे हटाकर एक अखण्ड ज्ञायक पारिणामिकभाव पर कर। पारिणामिकभाव अर्थात एक भाव पर नहीं, लेकिन अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि कर।

मुमुक्षुः- इतना तत्त्व मिला, हम हमसे हो सके उतना प्रयत्न, चिंतन, मंथन सब करते भी हैं, परन्तु हमारे व्यवहारिक जीवनमें चलते-फिरते, कोई जूठ बोलनेका भाव, मायाचारीके भाव होते हो, अथवा सामनेवाले जीवको दुःख होगा ऐसा जाननेकी दरकारका भाव न रहता हो, वह सब तो बाह्य है। तो वह आत्मसाधनामें कुछ अवरोधरूप हो या पात्रताकी (क्षति है)?

समाधानः- स्वयं समझ लेना कि कैसे भाव आते हैं। मुमुक्षुकी भूमिकामें आत्मार्थका प्रयोजन मुख्य (होता है)। आत्मार्थीको न शोभे ऐसे मर्यादा तोडकर ऐसे विचार आत्मार्थीको होते नहीं। ऐसे कार्य भी आत्मार्थीको नहीं होते। जो आत्मार्थका पोषण हो, आत्मार्थताकी मुख्यता रहे ऐसे भाव आत्मार्थीको होते हैं। अपनी आत्मार्थताकी मर्यादा टूट जाय ऐसे भाव आत्मार्थीको होते नहीं। फिर कैसे आते हैं, उसका विचार स्वयंको करना रहता