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करे तो हो सकता है। आचायाने युक्तिसे, दलीलसे (सिद्ध किया है)। जो अस्तित्व हो वह अधूरा नहीं होता। पूर्ण अनन्त स्वभावसे भरा है।
समाधानः- ... अनादिअनन्त जैसा है वैसा ज्ञायक है। दृष्टि तो ऐसी कर। उसकी कृतकृत्य दशा पूर्ण पर्याय प्रगट हो तब हो। नहीं तो अनादिअनन्त.. दृष्टि तो चैतन्य पर स्वयं जैसा है वैसा ही है। उसमें कोई फेरफार नहीं हुआ है। ऐसे द्रव्य पर दृष्टि कर। स्वयं जाननेवाला है। साधकभाव भी व्यवहार है। इसलिये उस प्रकारसे स्वयं विभाव कर्ता नहीं है। अधूरी पर्याय जितना भी स्वयं नहीं है। अधूरी पर्यायें हों, वह भी अपना मूल स्वरूप नहीं है। इसलिये तू द्रव्य पर दृष्टि कर। क्षयोपशमभाव और उपशमभाव भी अधूरी पर्यायें हैं। इसलिये तू पूर्ण पर दृष्टि कर। तू जाननेवाला ज्ञायक है। आगे- पीछे मैंने कुछ सुना नहीं है, परन्तु उसका आशय यह है।
साधकभाव भी व्यवहार है। दृष्टि तो अखण्ड होती है। साधकभाव बीचमें आये बिना रहता नहीं। साधकभाव व्यवहार है। इसलिये तू अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि कर। वह अखण्ड है उसमें साथमें पुरुषार्थ आ जाता है। पुरुषार्थ उसमें (है)। दर्शन, ज्ञान, चारित्र व्यवहार पर्याय तो अधूरी है, इसलिये उसमें पुरुषार्थ तो करना ही है, परन्तु तू वह सब कर्ताबुद्धि छोड दे। तू ज्ञाता है। वह कर्ताबुद्धि छोड दे। तो भी पुरुषार्थ तो उसमें करनेका रहता है।
निश्चय और व्यवहार दोनों जानने योग्य है। दृष्टि एक चैतन्य पर रख। आदरणीय एक चैतन्य है। दृष्टिके बलसे पुरुषार्थ होता है। इसलिये तू अखण्ड ज्ञायक है। साधकभाव व्यवहार है। वह बीचमें आये बिना रहता नहीं। तू कोई भी पर्याय है, उस पर्यायका निश्चय दृष्टिसे तेरा अकर्तास्वभाव है, तेरे स्वभावका कर्ता अनादिअनन्त पारिणामिकभावसे है। ऐसा कहना है।
मुमुक्षुः- अर्थात वहाँ ज्ञायककी दृष्टि करानेको...।
समाधानः- ज्ञायककी दृष्टि करनेको। बन्ध-मोक्षके जो विकल्प आये, वह विकल्प भी शुभभाव है। वह बन्ध-मोक्षकी जो पर्याय हैं, वह पर्याय भी प्रगट होती है मोक्षकी। इसलिये तू पर्याय पर दृष्टि मत करना। वह साधकभाव बीचमें आता है। मोक्ष है वह भी एक पर्याय है। इसलिये तू ज्ञायक जाननेवाला है, अखण्ड शुद्धात्मा है। ऐसा कहना है। पर्याय जितना ही तेरा स्वरूप नहीं है। तेरा स्वरूप अखण्ड है।
जो बादमें प्रगट होता है, तेरा मूल स्वरूप तो अनादिअनन्त है। परन्तु उसमें द्रव्यदृष्टि करे तो ही शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। साधकभाव तो बीचमें आता है। साधकभाव व्यवहार है, ऐसा कहना है। सब अधूरी पर्याय व्यवहार है।
मुमुक्षुः- यानी वहाँसे लक्ष्य छुडाना है।