४४ ही है। ग्रहण तो स्वयंको ही करना है।
मुमुक्षुः- पूरा समय उसके लिये देना पडे।
समाधानः- समय देना पडे और उसीके पीछे लगना पडे तो होता है।
मुमुक्षुः- अनन्त काल स्वयंने क्यों ध्यान नहीं रखा? उसमें फिर माताजी! ऐसा लगता है कि...
समाधानः- बाहर ही बाहर भटका है। स्वयंकी वस्तुको स्वयंने पहचाना नहीं, पुरुषार्थकी मन्दता करता है।
मुमुक्षुः- जब द्रव्यलिंगी साधु हुआ होगा, तब भावलिंगी मुनिओंके समूहमें गया होगा, कदाचित।
समाधानः- बना हो।
मुमुक्षुः- वह जब होता है, तब बहुत दुःख हो जाता है कि ये..?
समाधानः- स्वयंको अपूर्वता नहीं लगी हो।
मुमुक्षुः- नुकसान.. नुकसान.. नुकसानीका ही धंधा किया।
समाधानः- भावलिंगीकी महिमा स्वयंको नहीं आयी हो। इसलिये मैंने बहुत किया है, ऐसे संतोष माना। .. न करता हो, बाकी अन्दरसे कुछ-कुछ स्वयंको ठीक लगे वह करता हो।
मुमुक्षुः-..
समाधानः- स्वयंको ग्रहण नहीं करता है। वैराग्य तो उसने किया है, ऐसा तो उसमें है। वह कोई कपटी मनुष्य है, ऐसा तो नहीं कह सकते। सरलता आदि अमुक तो होता है। विशालबुद्धि। विशालबुद्धिका अर्थ तत्त्व पकडनेकी शक्ति कितनी है, वह देखना है। बाकी तो अमुक वैराग्य धारण किया हो, सब छोड दिया हो, अमुक प्रकार तो होता है। अमुक साधारण तो होता है। सरलता आदि तो होता है। अमुक मध्यस्थता, कोई माथापच्चीमें पडता नहीं।
विशालबुद्धि अर्थात तत्त्व ग्रहण करनेकी शक्ति होनी चाहिये न। सब बोल (- गुण) अन्दर न हो, कोई-कोई तो होते हैं। अमुक प्रकारकी भूमिका.. परन्तु जिस जातिका होना चाहिये उस जातका होना चाहिये न। अमुक भूमिका तो वैराग्य धारण किया हो तो कुछ तो ऐसा होता है। अंतरमें-से जो होना चाहिये वह नहीं हुआ हो। स्वयंको तत्त्व ग्रहण करनेकी शक्ति, विशालबुद्धि, सरलता, तत्त्व ग्रहण करे ऐसी शक्ति, ऐसी भिन्नता, अंतरमें तत्त्व ग्रहण हो, ऐसी शक्ति होनी चाहिये। ऐसा बाहरसे तो जीव अनेक बार करता है।
मुमुक्षुः- वह तो हमें कैसे मालूम पडे?