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समाधानः- पाप तो है, हाँ, बडा है। सप्त व्यसनसे भी मिथ्यात्व बडा पाप है। यथार्थ वस्तु स्वरूपको पहचानता नहीं। जूठी भ्रान्तिमें पडा है। वस्तु स्वरूपको टेढा- मेढा, जैसे-तैसे स्वीकारता है, इसलिये बडा पाप है। अन्दर स्वरूपका घात करता है, बडा पाप है।
मुमुक्षुः- आश्चर्य तो इसलिये लगे कि बाहरमें शिकार करता हो..
समाधानः- बाहरसे हिंसा आदि करता हो तो वह पापी दिखता है कि ये पाप कर रहा है, ऐसा दिखे। अन्दरमें जो हो रहा है, वह उसे दिखाई नहीं देता। इसलिये वह पाप नहीं दिखता। बाहरमें स्थूल दिखता है न, इसलिये वह पाप दिखाई देता है। ... बडा पाप है। यथार्थ नहीं है, वस्तु स्वरूपको विपरीत रूपसे समझता है, स्वरूपका घात हो रहा है इसलिये बडा पाप है। (ऐसा कहा) इसलिये व्यसन करनेमें कोई बाधा नहीं है, ऐसा अर्थ नहीं है। लेकिन वह व्यसन मिथ्यात्वके साथ ही सम्बन्ध रखता है। इसलिये व्यसन तो मुमुक्षुको भी नहीं होते।
मुमुक्षुः- निश्चय और व्यवहार, दोनों साथमें होते हैं या अलग-अलग होते हैं?
समाधानः- दोनों साथमें होते हैं। यथार्थ निश्चय और यथार्थ व्यवहार, दोनों साथमें होते हैं। बाकी ये जो व्यवहार कहा जाता है, जो धर्मका व्यवहार कहा जाता है, धर्मका व्यवहारसे स्वीकार किया, वह व्यवहार तो निश्चयपूर्वकका व्यवहार नहीं है। वह तो व्यवहारमात्र व्यवहार है। उसे व्यवहार नाम दिया जाता है। बाकी अंतरमें यथार्थ निश्चय-व्यवहार साथमें होेते हैं। ज्ञायककी परिणति प्रगट हो, वहाँ पर्यायका व्यवहार, शुद्ध पर्यायके साथ देव-गुरु-शास्त्रके परिणाम जो शुभभाव आदि होते हैं। अंतरमें जो परिणतिमें है, वह निश्चय-व्यवहार साथमें होते हैं। शुद्ध परिणतिका व्यवहार। उसकी भूमिका अनुसार शुभभाव होते हैं, वह सब उसके साथ यथार्थ रूपसे होते हैं। बाकी अनादिका जो व्यवहार है, वह रूढिगतरूपसे व्यवहार होता है। अकेला व्यवहार होता है। व्यवहाराभास कहते हैं।
मुमुक्षुः- शुभभावको व्यवहार नाम मात्र (कहा)।
समाधानः- नाममात्र है। शुभभावको व्यवहार (कहा)। उसकी यथार्थपने साधकदशा प्रगट हुयी हो उसे कहते हैं। बाकी व्यवहार नाम दिया जाता है। लेकिन जब तक नहीं होता है तब तक अशुद्ध भावसे बचनेको शुभभाव आते हैं। जिज्ञासाकी भूमिकामें भी शुभभाव होते हैं। जिज्ञासा हो, जिसे सच्चे देव-गुरु-शास्त्रकी श्रद्धा हो, उसे भी सप्त व्यसन नहीं होते। आत्माकी जिज्ञासाके साथ देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करे। आत्माको कैसे पहचाना जाये? गुरु क्या कहते हैं? देव क्या कहते हैं? सबका आशय समझना चाहिये। अनादिका अनजाना मार्ग देव-गुरु-शास्त्रके बिना समझमें नहीं आता। और ऐसा