१२८ रहता है। मूल स्वरूपको तो पहचान। इसलिये उसके बलसे, उसके जोरसे कहते हैं। और वस्तु स्वरूप भी ऐसा ही है कि द्रव्यदृष्टिके बल बिना आगे नहीं बढता। बाहर व्यवहारमें ऐसे ही करता रहता है, उसमें ही सब साफ करता रहता है। तीव्रमेंसे मन्द, मन्दमेंसे तीव्र करता रहता है। परन्तु द्रव्यदृष्टिके बलमें उसका निषेध नहीं हो जाये उसका ध्यान रखना। क्योंकि वह है।
द्रव्यदृष्टि क्यों प्रगट करनी है? कि स्वयं भ्रान्तिमें खडा है। उसका ध्यान रखना है। उसमेंसे साधना प्रगट करनी है। किसके द्वारा, किस मार्गसे यह प्रगट होता है? कि द्रव्यदृष्टिके आलम्बनसे, द्रव्यके आलम्बनसे प्रगट होता है। उसके आलम्बन बिना प्रगट नहीं होता। अपनी बात जीवने अनादि कालमें सुनी नहीं है और उसकी रुचि नहीं की है, परिचयमें आयी नहीं, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। स्वयं ही है। स्वरूपमें एकत्व और परसे विभक्त, विभावसे विभक्त भिन्न है, उसे पहचान।
समाधानः- .. वह मिथ्यात्वके साथ होते हैं, इसलिये उसे बडा पाप कहा है।
मुमुक्षुः- वास्तवमें मिथ्यात्व बडा पाप है।
समाधानः- मिथ्यात्व बडा पाप है। जिसके परिणाम बिना अंकूशके हैं, जिसमें सात व्यसन आदि अंकूश बिनाके परिणाम हैं, उसे बडा पाप कहा है। जिसे जूठी भ्रान्ति है, मिथ्यात्वके साथ ये सात व्यसन हैं, उसके परिणाममें अंकूश नहीं है। इसलिये सात व्यसन बडा पाप है, ऐसा कहनेमें आता है।
सम्यग्दर्शन जिसे होता है उसे विभावका रस ऊतर जाता है। आत्मामें रस लगता है, ज्ञायककी परिणति प्रगट हुई, उसे स्वरूपकी ओर परिणति (प्रगट हुई)। स्वरूपकी मर्यादासे बाहर नहीं जाता। मिथ्यात्व भ्रान्ति है उसके साथ यह सब पाप है, इसलिये उसे बडा पाप कहा है। बाकी तो मिथ्यात्व बडा पाप है। उसके साथ ऐसे अंकूश बिनाके परिणाम हैं, इसलिये बडा पाप है, ऐसा कहा है।
व्यवहार मात्र, जिसका व्यवहार अच्छा हो उसे व्यसन नहीं होता। सम्यग्दर्शनकी तो बात ही अलग है, जिसका व्यवहार अच्छा है, व्यवहारसे व्यवहार धर्मकी श्रद्धा हो तो भी उसे सप्त व्यसन नहीं होते। श्रावकोंको वह सप्त व्यसन शोभते नहीं। व्यवहार धर्म जो स्वीकारते हैं, वहाँ भी सप्त व्यसन नहीं होते।
मुमुक्षुः- प्रश्न तो यह किया कि, सिद्धान्तमें सप्त व्यसनसे मिथ्यात्वको बडा कहा है। वह भी पाप तो है ही, लेकिन उससे बडा पाप मिथ्यात्वका है।
समाधानः- हाँ, मिथ्यात्व बडा पाप है।
मुमुक्षुः- मिथ्यात्वका सेवन हो और भले सप्त व्यसन नहीं हो, तो भी वह बडा पाप कर रहा है।