अमृत वाणी (भाग-५)
८२ उसका स्वपरप्रकाशकपना चालू हो गया है। केवलज्ञानी तो लोकालोक (जानते हैं)। ये तो उसे स्वयंका अपने लिये स्वपरप्रकाशक चालू हो गया है। उसके वेदनमें विभाव- स्वभावका भेद करता रहता है। गुणभेद, विभाव सबका ज्ञान करता रहता है। स्वभाव और विभावका तो भेद करता है कि यह मैं और यह पर, यह मैं और यह पर, ऐसा करता रहता है।
.. प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है। ये उसके वेदनमें था, उसे प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है। स्वपरप्रकाशक। प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!