८४
मुमुक्षुः- टिकानेका अर्थ?
समाधानः- उसे ज्ञायकका ज्ञायकरूप वेदन अर्थात स्वानुभूति नहीं, परन्तु मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसी अंतरमें-से दृढता, ज्ञायक ग्रहण होकर ऐसी दृढता अंतरमें-से आनी चाहिये। ये शरीर और ये विभाव, विभावका विकल्पका वेदन हो वह नहीं, परन्तु ज्ञायक ज्ञायकरूप है। उस ज्ञायककी दृढतारूप ज्ञायकका भावभासन उसकी अंतरकी परिणतिमें आना चाहिये। और उसे वह टिकाये तो वह आगे जाता है। वेदन अर्थात स्वानुभूतिका वेदन वह नहीं, परन्तु ज्ञायकका ज्ञायकतारूप वेदन।
मुमुक्षुः- सविकल्प दशामें ज्ञायककी परिणति ज्ञानमें ग्रहण होनी चाहिये।
समाधानः- हाँ, ज्ञानमें ग्रहण होनी चाहिये कि ये ज्ञायक ज्ञायकरूप है। वह उसे ज्ञानमें ग्रहण होनी चाहिये और उसकी दृढता होनी चाहिये अंतरमें। उसकी दृष्टि वहाँ स्थापित हो जानी चाहिये। उसकी दृष्टि उसमें दृढ होनी चाहिये। ज्ञायक ज्ञायकरूप है, वही मैं हूँ। इसलिये उसकी अतंरकी परिणतिकी पूरी दिशा पलट जाती है।
मुमुक्षुः- पकडमें आये वह ज्ञानका वेदन?
समाधानः- वह ज्ञानका वेदन है। वह ज्ञायकका वेदन है। स्वानुभूतिका नहीं, परन्तु ज्ञायकका भावका भासन है। भावभासन है।
मुमुक्षुः- उसे राग और इस ज्ञायककी परिणति दोनोंका भेद ज्ञानमें पकडमें आता है।
समाधानः- ज्ञानमें पकडमें आता है, यह राग है और यह ज्ञान है। उसे अंतरमें- से पकडमें आ जाना चाहिये।
मुमुक्षुः- ऐसी प्रतीतिकी दृढता हो वह उसका टिकना है?
समाधानः- हाँ, वह टिकना (है)। प्रतीतिकी दृढता होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- ज्ञानमें पकडमें आता जाय, वैसे रागका जो स्वामीत्व अथवा रागका वेदन पतला पडता जाता है, कैसे होता है?
समाधानः- उसका स्वामीत्व अन्दरसे छूटता जाय। राग मैं नहीं हूँ और यह मैं हूँ। ऐसे। यथार्थ सहजरूप बादमें होता है, परन्तु उसे उस प्रकारसे छूटता जाता है। मैं इसका स्वामी नहीं हूँ, मैं मेरे ज्ञायकरूप हूँ। भिन्नका भिन्नरूप उसे भावभासन होता है। अभी उसकी दृढता करता जाता है, उसे सहजरूप नहीं हुआ है। उसकी परिणतिमें वह ग्रहण करते जाता है कि मैं इससे भिन्न ही हूँ, मैं इसका स्वामी नहीं हूँ। मेरा चैतन्यतत्त्व इस विभावसे भिन्न तत्त्व है, निराला हूँ। ऐसा उसे अंतरमें-से भिन्नताका भावभासन होता जाता है।
मुमुक्षुः- अनेक जगह ऐसा आया है कि इसके संस्कार डाले तबसे सम्यक सन्मुखता है। संस्कार डलनेके बाद तो दूसरे भवमें, इस भवमें प्राप्त नहीं करेगा तो दूसरे भवमें