पुदगलके स्वभाव है। वह स्वभाव और चैतन्य स्वभाव दोनों अलग वस्तु है। चैतन्यका आनन्द अपूर्व है। वह तो अनुपम है। उसे कोई उपमा लागू नहीं पडती।
मुमुक्षुः- चैतन्य मेरा देव है, उसे ही मैं देखता हूँ। दूसरा कुछ मुझे दिखता ही नहीं।
समाधानः- चैतन्यकी ओर दृष्टि गयी, वह दृष्टि वहाँ स्थापित हो गयी। तो दृष्टि अब चैतन्यको ही देखती है, दूसरा विभाव दिखता नहीं। दृष्टिके आगे विभाव गौण हो जाता है। उसे सब ज्ञान है कि अभी अधूरी अवस्था है, अभी पूर्ण केवलज्ञान हुआ नहीं है, अभी बाकी है। वह सब ज्ञानमें जानता है। परन्तु दृष्टि चैतन्यकी ओर गयी, वह दृष्टि वहाँ स्थापित हो गयी तो मैं मेरे चैतन्यदेवको ही देखता हूँ, बाकी सब उसके आगे गौण हो जाता है।
मैं अकेला चैतन्य अनन्त महिमासे, अनन्त स्वभावसे भरा हुआ चैतन्य, दिव्य शक्तिसे भरा ऐसा चैतन्यदेव, उसे ही मैं देखता हूँ। अंतरमें जहाँ जाता हूँ तो चैतन्यदवे ही दिखता है। विभाव मुझे दिखता नहीं। उसकी दृष्टिकी अपेक्षासे (कहा है)। मेरी नजर वहीं थँभ गयी है, बाहर कहीं मेरी दृष्टि जाती नहीं। ज्ञानका उपयोग जाता है, उस बातको गौण करके दृष्टि चैतन्यको ही देखती है।
मुमुक्षुः- दृष्टि अर्थात श्रद्धा, उतना ही नहीं? नजर भी वहाँ थँभ गयी है?
समाधानः- नजर वहाँ थँभ गयी है। श्रद्धा मात्र बुद्धिसे कर ली, ऐसे श्रद्धा नहीं। चैतन्यका अस्तित्व पहचानकर उस पर दृष्टि थँभ गयी है, नजर वहाँ थँभ गयी है।
मुमुक्षुः- ऐसा आता है कि विभाव परिणाम होते समय ही तेरेमें निर्मलता भरी है, परन्तु तू विभावमें तन्मय हो रहा है। अज्ञानी विभावमें तन्मय हो रहा है।
समाधानः- उस समय निर्मलता स्वभावमें तो है, परन्तु अज्ञान अवस्थामें वह विभावमें तन्मय हो गया है। परन्तु विभावमें तन्मय हो गया, इसलिये उसकी निर्मलताका नाश नहीं हो गया। उसकी स्वभाव-शक्तिमें निर्मलता तो भरी है। जिस क्षण वह तन्मय हो रहा है, उसी क्षण निर्मलता उसमें शक्तिरूपसे भरी है। उसका नाश नहीं हुआ है। उस समय यदि तू तेरी दृष्टि बदल तो तेरे स्वयंमें तू निर्मलताका पिण्ड है और शक्तिसे भरा है। उसी वक्त दृष्टि बदल तो तेरा अस्तित्व मौजूद ही है। कहीं खोजने जाना पडे ऐसा नहीं है, तू स्वयं ही है। इसलिये दृष्टि बदल तो उसी क्षण तेरेमें निर्मलता भरी है। दृष्टि बदलता नहीं है, इसलिये विभावमें तन्मय हो रहा है, दृष्टि बाहर है इसलिये।
मुमुक्षुः- अज्ञानी हो उसे भी अस्तित्वका उतना ही ख्याल आ सकता है?