Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 208.

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अमृत वाणी (भाग-५)

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ट्रेक-२०८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- आज चर्चा सुनते समय मनमें एक विचार आ गया कि जैसे समयसारके साथ प्रवचनसारका मेल है। तो ... उसका सच्चा ज्ञान बराबर ज्ञानप्रधान .... । ऐसे गुरुदेव और आपको दोनोंको सुने तो उसे जो चाहिये, जो क्षति हो तो वह आपके परिचयसे उसे स्पष्ट हो। दोनोंका सुमेल हो ऐसा लगे। गुरुदेवके पास बहुत सुना है, फिर भी आपसे जब दूसरा प्रकार जाननेको मिले तब मानों सन्धि होती हो, ऐसा लगे।

समाधानः- ... दृष्टि-ज्ञानकी सन्धि आती थी। परन्तु पकडना (कठिन पडता था)। आदमीकी जैसी दृष्टि हो, वैसा पकडे।

मुमुक्षुः- दृष्टिका विषय और ज्ञानका विषय, दोनोंके मेलमें बहुत सूक्ष्मता है।

समाधानः- उसमें भूल हो ऐसा है।

मुमुक्षुः- आज तो बहुत सुन्दर (स्पष्टीकरण आया)।

समाधानः- दृष्टान्त है। लोगोंको पूरनपूरीका होता है न, इसलिये पूरनपूरीका दृष्टान्त दिया। बाकी चैतन्यका अपूर्व आनन्द अलग और पूरनपोरी तो जड है। परन्तु लोगोंको समझाना कैसे? इसलिये गुरुदेवने दृष्टान्त दिया।

मुमुक्षुः- वह आनन्द हमें मालूम पडे, उस प्रकारसे भाषामें आ सकता है?

समाधानः- भाषामें न आये। वह तो अनुपम है। जगतकी कोई वस्तुकी उसे उपमा नहीं दे सकते। वह तो अपूर्व है। चैतन्य वस्तु अलग, उसके गुण अलग, उसका आनन्द अलग। सब अलग है। वह तो उसे समझानेके लिये अनेक प्रकारसे उपमा दी है। गुरुदेवने भिन्न-भिन्न प्रकारकी उपमा दी। पूरनपूरीकी दे, घीकी दे, अनेक जातकी दे। घीका स्वाद कैसा? गुरुदेव बहुत बार कहते थे, उसका वर्णन करने जाय तो कर न सके। वैसे आत्माका आनन्द अपूर्व है।

चारों ओरसे लोगोंको उसका स्वाद होता है, उस दृष्टिसे। बाकी चैतन्य वस्तु अलग है और यह जड वस्तु अलग है। बाकी उसे कोई जडकी उपमा लागू नहीं पडती। देवलोककी ऋद्धिकी उपमा भी उसे लागू नहीं पडती। इन्द्रका इन्द्रासन और देवलोककी ऋद्धि... "रजकण के ऋद्धि वैमानिक देवनी, सर्वे मान्या पुदगल एक स्वभाव जो।' सब