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तो यही है। विचार करके... गुरुदेव ऐसा अपूर्व रीतसे कहते थे। यही सत्य है। नक्की विचारसे होता था, परन्तु ऐसा लगता था कि यही सत्य है।
मुमुक्षुः- आप बहुत तर्कमें नहीं ऊतरते थे।
समाधानः- यही बात सत्य है। शक्करका स्वभाव और काली जिरी, दोनों भिन्न- भिन्न हैं। ऐसे आत्माका स्वभाव भिन्न है और विभाव भिन्न है। बराबर ऐसा ही है, ऐसे ही भेदज्ञान होता है। ऐसे विचार आ जाते थे। गुरुदेव कहते कि आत्मा भिन्न, विकल्प भिन्न, उससे आत्मा भिन्न है। दो स्वभाव ही भिन्न हैं, इसलिये वह भिन्न है।
मुमुक्षुः- सीधा ऐसा आनेका कारण, पूर्वका कारण?
समाधानः- विचार तो बहुत आते थे। उसमेंसे ऐसा नक्की हो गया। पूर्वका कारण...
मुमुक्षुः- समकित ले लेगी, और ये कहते कि कितना दूर है। हाथ बताकर।
समाधानः- बहुत भावना हो न, उस परसे मैं कहती थी कि इतना दूर है। ऐसे कुछ मालूम नहीं पडता, परन्तु मेरे भावसे (कहती थी)।
मुमुक्षुः- दूसरी बार वेकेशनमें आया, कहा, समकित कहाँ फिजूल पडा है। चंपा! अब समकित कितना दूर है? मुझे लगा, उतना ही कहेगी। तो आधा कहा। इतना। तीसरी बार तो ले लिया था।
समाधानः- अन्दरसे ऐसा लगे न कि ये शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न। ऐसी-ऐसी भावना अन्दर आती रहे, उस परसे ऐसा लगे। लेकिन ऐसे थोडे ही नक्की होता है। परन्तु मेरा भाव ही ऐसा कहता था।
मुमुक्षुः- भावनगर सच्ची.. समाधानः- अन्दरसे ऐसी हूँफ आ जाती थी। मुमुक्षुः- अन्दरका जोर बताता है कि इतना दूर है। समाधानः- गुरुदेवका प्रताप है। उन्होंने कहा तो मार्ग मिला, अन्यथा मार्ग कहाँ मिले? गुरुदेवकी कहनेकी शैली और ऐसे भावसे (कहते थे)। वे स्वयं ही कोई अपूर्व तीर्थंकरका द्रव्य, इसलिये कुछ अलग ही कहते थे। उनका जन्म सबको तारनेके लिये हुआ।