Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

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मुमुक्षुः- गुरुदेवने तो बहुत बताया, लेकिन भूलमें-से आपने हमें बाहर निकाला। आपके प्रतापसे हम... नहीं तो हम बहुत बडी भूलमें पडे थे।

मुमुक्षुः- कोई बार तो अंतरमें ढेरके ढेर लग जाय और कभी सहज जैसा हो वैसा रहता है। इन दोनोंमें अंतर क्या है?

समाधानः- कोई बार पुरुषार्थकी गति ऐसी जातकी हो तो अंतरमें-से ढेरके ढेर लग जाय। कोई बार सहज दशा हो ऐसा आये। अभी जबतक वीतराग दशा नहीं हुयी है, क्षायिक वीतरागपर्याय नहीं हुयी है तो पुरुषार्थकी गति अभी क्षयोपशम भावरूप है न? इसलिये कभी ढेर लग जाय, कभी मध्यम दिखे, कभी ऐसा दिखे, इस अर्थमें है।

मुमुक्षुः- कोई बार आनन्द अधिक आये, कभी कम आये, ऐसा?

समाधानः- आनन्द अधिक आये ऐसा नहीं। उसकी दशा बढती जाय। उसकी सविकल्पतामें भी दशा बढती जाय और निर्विकल्पतामें भी दशा बढती जाय। मुनि छठवें- सातवें गुणस्थानमें झुलते हो, तो क्षयोपशम चारित्र है। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें लीन होते हैं। तो उनकी चारित्रकी दशा तो छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुले ऐसी है। तो भी उन्हें कोई विशेष गाढपना (होता है)। सविकल्पतामें विशेषता दिखे, निर्विकल्पतामें विशेषता दिखे, ऐसे अनेक प्रकारका दिखे। कोई ज्ञानकी निर्मलता दिखे, दर्शनकी अवगाढता, कोई चारित्रमें विशेषता दिखे। दर्शन तो एक प्रकारका होता है, परन्तु अवगाढता (बढती है)। ज्ञान, चारित्र आदि अनेक प्रकार दिखे।

मुमुक्षुः- ... "मैं हूँ' ऐसा स्वयंको स्वयंसे अस्तित्वका जोर आये। उसमें "मैं हूँ' ऐसे दो अक्षर ही हैं। मैं कैसा हूँ? कितना हूँ? ऐसा कुछ नहीं। मैं हूँ।

समाधानः- अपना अस्तित्व ग्रहण करनेमें कहीं भेद नहीं पडता। स्वयं अपना अस्तित्व (ग्रहण करता है)। दृष्टि कहीं भेद नहीं करती। अपना अस्तित्व "मैं हूँ', अपना अस्तित्व उसे ज्ञायकरूप-से ग्रहण होता है। उसमें यह ज्ञानगुण है और यह द्रव्य है, गुण और गुणी ऐसा कोई भेद नहीं पडता। स्वयं अपना अस्तित्व, चेतनका अस्तित्व चैतन्यरूप-से ग्रहण होता है। दृष्टिमें कोई भेद नहीं होता। इसलिये मैं हूँ, ऐसे स्वयंका अस्तित्व स्वयंको अंतरमें-से ग्रहण होना चाहिये। दृष्टिके विषयमें उसका पूरा अस्तित्व उसे ग्रहण होना चाहिये। ऐसे अर्थमें है।

फिर ज्ञानमें भेद पडते हैं। ज्ञान दृष्टिको ग्रहण करे, ज्ञान दृष्टिका विषय जाने और ज्ञान भेदको भी जाने। सब ज्ञानमें आता है। दृष्टि तो अपना अस्तित्व-सामान्य अस्तित्व ग्रहण करती है। उसमें गुण-गुणीका भेद भी नहीं होता। स्वयंका अस्तित्व स्वतःसिद्ध है उसे ग्रहण करती है। मैं हूँ, ऐसे। मैं यह हूँ।