१३२
समाधानः- ... उसका स्वरूप ज्ञात होता है, परन्तु मेरा ज्ञान परिणमित होकर वह पर्याय होती है। ज्ञेय परिणमित होकर मेरेमें पर्याय नहीं होश्रती, ज्ञेयकी पर्याय ज्ञेयमें है। मेरे ज्ञानकी पर्याय मेेरेमें है। ज्ञान परिणमित होकर पर्याय होती है। ज्ञान ज्ञेयको जानता है, परन्तु परिणमनेवाला मैं हूँ। (ज्ञान) स्व-पर दोनोंका होता है, परन्तु ज्ञान स्वयं परिणमित होकर वह पर्याय होती है। ज्ञेय परिणमित होकर मेरेमें पर्याय नहीं होती है। मैं स्वयं परिणमता हूँ। भावरूप परिणमनेवाला हूँ। मेरे भाव मुझसे होते हैं।
.. अपनी अचिंत्य शक्तिकी महिमा है। भेदज्ञानरूप परिणमनेवाला (हूँ)। मैं एक स्वरूप रहनेवाला हूँ, अनेकरूप होनेवाला नहीं हूँ। अनेक ज्ञेयोंकी पर्याय ज्ञात हो, पर्यायकी अपेक्षासे मेरेमें अनेकता होती है, बाकी स्वभावसे तो मैं एक हूँ। पर्यायकी अनेकतामें मैं पूरा खण्ड खण्ड नहीं होता हूँ, वह तो पर्याय है। वस्तुु स्वरूपसे मैैं एक हूँ। ऐसा यथार्थ ज्ञान हो, स्वरूपमें स्वयंका ग्रहण हो, ऐसी भेदज्ञानकी धारा हो तो उसे स्वानुभूतिकी पर्याय प्रगट हो।
.. ज्ञान परिणमित होकर पर्याय होती है। लेकिन उसमें स्व-पर ज्ञेय दोनों ज्ञात होते हैं। स्व और पर। परन्तु ज्ञान परिणमित होकर पर्याय होती सहै। ज्ञेय परिणमित होकर मेरेमें पर्याय नहीं आती है। .. ज्ञेयका जानपना आता है, परन्तु परिणमन ज्ञानका है। जानपना ज्ञेयको जानता है। परन्तु परिणमन ज्ञानका है। जानपना होता है। जानपना अपना है। स्व-परका जानपना होता है, परन्तु परिणमन ज्ञानका है।
मैं मेरे ज्ञानरूप परिणमता हूँ। स्वपरप्रकाशक ज्ञान मेरा है। ... परिणमन दूसरेका नहीं है, परिणमन मेरा है। परन्तु जानपना स्वपरप्रकाशक होता है। पर्याय हुयी उसमें ज्ञानने क्या जाना? स्व-पर दोनोंका स्वरूप। छद्मस्थको जहाँ एक जगह उपयोग होता है वह, प्रगट उपयोगात्मकपने तो वह ऐसा जानता है। लब्धमें जीवको सब जानपना होता है। प्रगटपने जहाँ उपयोग हो वहाँ छद्मस्थ जानता है। केवलज्ञानी दोनों एकसाथ जानता है, स्वपर। साधकदशा है और भेदज्ञानकी परिणति है। उसकी परिणति, ज्ञानकी परिणति तो, यह मैं हूँ और यह पर है, मैं और पर, मैं और पर ऐसी ज्ञानकी परिणति तो चालू ही है।