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भी नहीं। परन्तु अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, मेरा स्वभाव नहीं है।
(पुदगलके) निमित्तसे होता है इसलिये पुदगलका। परन्तु अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, इसलिये अपनी पर्यायमें, चेतनकी पर्यायमें होता है। परन्तु स्वभाव अपना नहीं है।
मुमुक्षुः- प्रीति चित्तेन सुनी है, वह भावि निर्वाण भाजनम, उसमें हम आ गये कि नहीं?
समाधानः- जिसने प्रीतिसे सुना वह सब आ जाते हैं। अंतरकी प्रीतिसे सुना वह सब आ ही जाते हैं। ऐसे गुरुदेव मिले, ऐसी अपूर्व वाणी बरसायी। अंतर प्रीतिसे जिसने बात सुनी, उसका स्वयंका हृदय कह दे कि मैं आ गया कि नहीं आ गया। जिसने स्वयंने अंतर प्रीतिसे वार्ता सुनी वह आ ही जाता है। उसका स्वयंका आत्मा ही बोलता है। स्वयंको कितनी प्रीति है, तत्त्वकी रुचि है, गुरुदेवकी वाणी जो तत्त्व बताती है, उसकी रुचि स्वयंको कितनी है, वह स्वयं ही स्वयंका आत्मा बता देता है।
... अनादिका अभ्यास है। करनेका यह तत्त्व गुरुदेवने बताया, ऐसा अपूर्व तत्त्व समझनेका अभी अवसर है। गुरुदेवने जो बताया है, वह महिमावंत तत्त्व है। पुरुषार्थको बदल देना। अनादिका अभ्यास है उसमें पलट जाय तो भी बदल देना। करनेका एक ही है।
मुमुक्षुः- द्रव्य और पर्यायकी भिन्नताकी बातें बहुत करते थे। और आप द्रव्य एवं पर्यायकी अभिन्नताकी बातें बहुत करते हो, अभिप्राय तो दोनोंका एक है।
समाधानः- अभिप्राय तो एक ही है। गुरुदेव बहुत करते थे ऐसा नहीं, प्रवचनमें जब वह विषय आये तब वे कहते थे। और जब द्रव्य-पर्याय, प्रवचनसारके प्रवचन हों तो गुरुदेव उसमें दूसरे प्रकारसे कहते थे। जिस प्रकारका विषय हो, प्रवचनमें जो गाथा आयी हो, उस अनुसार गुरुदेव कहते थे। गुरुदेवका आशय वैसा ही था।