Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

१३० यथार्थपने दुःख लगा है। यदि अस्तित्व ग्रहण नहीं करता है तो यथार्थ दुःख नहीं लगा है। अनन्त कालसे ऐसा तो किया कि ये सब दुःख है, दुःख है। ऐसे छोडनेका प्रयत्न किया। परन्तु अंतरसे यदि सच्चा दुःख लगे तो उसे अस्तित्व ग्रहण हुए बिना रहता नहीं। यथार्थ लगना चाहिये। तो अस्तित्व ग्रहण हो, तो ही वह दुःखसे भिन्न पडता है।

अनन्त कालसे बहुत बार यह दुःख है, ऐसा वैराग्य किया, लेकिन अस्तित्व ग्रहण नहीं किया। अस्तित्व ग्रहण करे तो वह दुःख लगे। यथार्थ दुःख लगे तो अस्तित्व ग्रहण करे। उसका अर्थ यह है कि अनन्त कालसे दुःख लगा, लेकिन सच्चा दुःख ही नहीं लगा है। सच्चा दुःख लगे तो अस्तित्व ग्रहण करता ही है।

मुमुक्षुः- दोनोंको परस्पर सम्बन्ध है।

समाधानः- परस्पर सम्बन्ध है।

मुमुक्षुः- .. आत्मा ज्ञानस्वरूप है, ऐसा स्वीकार करना। और दूसरी ओर ऐसा कहना कि राग-द्वेषके परिणाम मेरे हैं, ऐसा स्वीकार करना।

समाधानः- मेरे नहीं है, मेरे हैं ऐसा नहीं। ज्ञानस्वरूप हूँ, ऐसे ग्रहण (कर)। मेरे हैं अर्थात मेरी अशुद्ध परिणतिमें होते हैं, परन्तु वह मेरा स्वभाव नहीं है। मेरे हैं, वह अहंपना तो अनादि कालसे है। स्वामीत्वबुद्धि नहीं, परन्तु मेरी अशुद्ध परिणतिमें वह होता है। मैं मेरा स्वभाव उससे भिन्न है, मैं ज्ञायक हूँ। ये मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसे उसका भेदज्ञान करे। मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, परन्तु वह मेरा है ऐसा नहीं। उसका स्वामीत्व छोडना है। मेरा है, ऐसा नहीं। वह मेरा स्वभाव नहीं है। मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, परन्तु मेरा स्वभाव नहीं है। उसका भेदज्ञान करे कि मैं ज्ञायक हूँ और ये विभाव है।

मुमुक्षुः- (रागादि) परिणाम पुदगलका है।

समाधानः- पुदगलका है ऐसे नहीं, वह तो पुदगलके निमित्तसे होता है। पुदगलका है अर्थात स्वयं कुछ करता नहीं और स्वयं शुद्ध है और वह पुदगल है, ऐसा नहीं। अपनी अशुद्ध पर्यायमें होता है। लेकिन अपना स्वभाव नहीं है। मेरा है ऐसे ग्रहण नहीं करना है। वह मेरा और मैं उसका, ऐसे एकत्वबुद्धि नहीं (करनी है)। एकत्वबुद्धि तोडनी है। मैं ज्ञायक और वह मेरा स्वभाव नहीं है। मुझसे भिन्न है। लेकिन मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है, पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है।

भेदज्ञान करना। जडका ही ऐसा नहीं। परन्तु मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे, पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। सिद्ध भगवान जैसे शुद्ध निर्मल हैं, वैसा मैं शाश्वत द्रव्य निर्मल हूँ। परन्तु वह मेरा स्वभाव नहीं है। लेकिन होता है वह मेरी पर्यायमें होता है, परन्तु वह मेरा स्वभाव नहीं है। उसे स्वयंमें एकत्वरूप मानना नहीं, तथापि जडका है ऐसा