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उसका पुरुषार्थ (उस ओर जाता है)।
बाहरकी रुचि और बाहरकी भावना हो तो पुरुषार्थ अपनी ओर मुडता नहीं। इसलिये भावना, जिज्ञासा उग्र करे तो अपनी ओर पुुरुषार्थ मुड सकता है। अपनी रुचिके बिना कार्य होता नहीं। रुचि और भावना हो तो पुरुषार्थ होता है। शुरूआतकी भूमिकामें वह भावना आती है। तेरी भावना यथार्थ होगी तो कार्य होगा।
मुमुक्षुः- भावना उग्र हो तो दूसरे कारण स्वतः प्राप्त हो जाते हैं?
समाधानः- तो कारण प्राप्त हो जाते हैं। तेरी भावना उग्र हो तो सब कारण अंतरमें प्राप्त हो जायेंगे। तेरी भावना... यदि तुझे अंतरमें चैन न पडे कि मुझे चैतन्य प्राप्त हो तो ही शान्ति होगी, चैतन्यके बिना शान्ति न हो, चैतन्यका स्वभाव प्रगट न हो तबतक उसे चैन न पडे ऐसी भावना हो तो उसे सर्व कारण प्राप्त हो जाते हैं।
मुमुक्षुः- बाहरमें दुःख लगे तो अन्दर आये बिना रहे नहीं और दूसरी जगह ऐसा है कि एकान्त दुःखके बलसे भिन्न पडे ऐसा नहीं है।
समाधानः- बाहरमें यदि उसे रुचि लगती हो और बाहरमें सुख लगे तो वह वापस ही नहीं मुडता। इसलिये बाहर कहीं सुख नहीं है। बाहरमें आकुलता और दुःख ही है। इस प्रकार दुःख लगे तो वापस मुडे। लेकिन अकेला दुःख-दुःख करता रहे और अपना अस्तित्व ग्रहण न करे तो भी अंतरमें आ नहीं सकता। अपना अस्तित्व ग्रहण करे कि बाहर तो दुःख है, लेकिन सुख कहाँ है? सुख मेेरे आत्मामें है। एक ज्ञायकको ग्रहण करे, स्वभाव ग्रहण करे तो वापस मुडे।
सब आस्रव आकुलतारूप है, विपरीत है, दुःख है, दुःखका कारण है, ऐसा उसे अंतरमें हो। परन्तु मैं कौन हूँ? ऐसे यदि निज अस्तित्व ग्रहण न हो तो ये सब दुःख है, दुःख है ऐसा करते रहनेसे, एकान्त ऐसा करनेसे नहीं होता। उस दुःखके पीछ निज अस्तित्व ग्रहण हो तो प्रगट हो। दुःख भी लगे और अपना स्वभाव क्या है, उसे भी ग्रहण करे, तो प्रगट हो।
लेकिन परस्पर सम्बन्ध है। जिसे दुःख लगे वह स्वयंको अंतरमें खोजे बिना नहीं रहता। और जो निज अस्तित्व यथार्थ रूपसे ग्रहण करता है, उसे बाहरमें दुःख लगे बिना नहीं रहता। ऐसा अस्ति-नास्तिका सम्बन्ध ही है। अपना अस्तित्व ग्रहण करे तो बाहरसे यह मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसा नास्तित्व आ जाता है। और ये विभाव है वह दुःखरूप है, मेरा स्वभाव नहीं है। इस प्रकार उसे अस्तिपूर्वक नास्ति आये। यथार्थ अस्तिको ग्रहण करे तो उसमें विभावकी नास्ति आ ही जाती है। एकदूसरेको सम्बन्ध है।
लेकिन यह विभाव मुझे नहीं चाहिये, वह अस्तिपूर्वक यदि ग्रहण करे तो उसे