१२८ आता है?
समाधानः- उसकी लीनता परसे। उसकी स्वानुभूतिकी दशा और सविकल्पताकी लीनता अमुक प्रकारकी (होती है)। छठवें गुणस्थानकी लीनता प्रगट हो तो उसे गृहस्थाश्रमके विकल्प भी छूट जाते हैं। छठवीं भूमिकामें मुनिकी दशा प्रगट होती है। पाँचवीं भूमिका आये तब उसके विकल्प अमुक प्रकारके हो जाते हैं और लीनता भी अंतरमें विशेष होती है। दृष्टिके साथ लीनता बढ जाती है।
मुमुक्षुः- अर्थात जितनी निर्विकल्प दशा हुयी, उतनी ही लीनता हुयी, ऐसा नहीं।
समाधानः- निर्विकल्प दशा पर भी उसका नाप है, परन्तु उसकी वर्तमान जो लीनता है उस पर उसका नाप है। उसकी भूमिका पूरी पलट जाती है। छठवीं भूमिका हो गयी। छठवें-सातवें गुणस्थानमें ऐसी उसकी दशा (पलट जाती है)। वर्तमान निर्विकल्प दशा तो बढती गयी, लेकिन वर्तमान जो सविकल्प धारा है, उस सविकल्पतामें भी उसकी लीनता विशेष है। भेदज्ञानकी ज्ञायकताकी उग्रता और लीनता विशेष है। उसे जो अमुक प्रकारके विकल्प (होते हैं), वह विकल्प अमुक प्रकारके ही आते हैं। ज्ञायककी उतनी लीनता बढ जाती है, सविकल्पतामें भी।
मुमुक्षुः- छठवें गुणस्थानमें दो जीव हों तो दोनोंकी लीनतामें फर्क होगा।
समाधानः- उसकी भूमिका एक है। इसलिये भूमिका पलटे... वर्तमानमें तारतम्यता होती है, लीनतामें तारतम्यता हो सकती है। स्वरूपाचरण चारित्रमें उसकी तारतम्यतामें फेरफार हो सकता है।
मुमुक्षुः- सम्यग्दृष्टि जीवकी प्रशंसा करते हो तो वह लीनताकी अपेक्षासे प्रशंसा करते हैं? कि इनकी लीनता विशेष है, इनकी लीनता कम है।
समाधानः- गुरुदेव क्या कहते हों, वह गुरुदेवका अभिप्राय...
मुमुक्षुः- वचनामृतमें जगह-जगह भावनाका महत्व बहुत आता है। तो भावना पर्याप्त है?
समाधानः- वह तो प्रथम भूमिकामें भावना आती है। फिर तो सम्यग्दर्शन, चारित्र दशा बढती जाती है। पहले जिसने कुछ प्राप्त नहीं किया है, उसे भावना (आती है)। स्वयं यथार्थ भावना करे तो फल आये। भावना हो तो उसे पुरुषार्थ हुए बिना रहता ही नहीं।
उसकी भावना उग्र हो कि मुझे चैतन्य ही चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये, ऐसी अंतरमें से भावना हो तो उसके साथ पुरुषार्थ भी प्रगट हुए बिना रहता ही नहीं। यदि उसे उस जातकी भावना नहीं है, अंतर चैतन्यकी ओर रुचि नहीं है, भावना नहीं है तो उसका पुरुषार्थ भी उस ओर जाता नहीं। रुचि हो, भावना हो तो ही