Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-५)

१३४ पर, यह मैं और यह पर, ऐसा चलता ही है। .. स्थापित ही है। .. प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है। ये इसके वेदनमें था, उन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है। स्वपरप्रकाशक। ... अपनेको स्वयं परिणति परिणमती है। उसमें आता है क्या? यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ।

समाधानः- .. बात बता दी। स्वयंको स्वभाव ग्रहण करना बाकी रहता है। यह शरीर तो भिन्न है, ज्ञायकतत्त्व भिन्न है। विभावस्वभाव अपना नहीं है। गुणभेद पर दृष्टि न कर, पर्यायभेद पर दृष्टि न कर, दृष्टि तो एक चैतन्य अनादिअनन्त है, उस पर कर। ज्ञान सबका कर। गुण, आत्मामें अनन्त गुण हैं। उसे ज्ञानमें लक्ष्यमें रख। शुद्धात्माकी जो पर्याय प्रगट हो, वह भी पर्याय होती है। उसका तू ज्ञान कर, परन्तु दृष्टि एक आत्मा पर स्थापित कर। गुरुदेवने मार्ग एकदम स्पष्ट कर दिया है।

मैं चैतन्यद्रव्य हूँ। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। अपना चैतन्यस्वभाव जो अनादिअनन्त है, उसे ग्रहण कर। अखण्ड ज्ञायकतत्त्वको। अपूर्ण-पूर्ण पर्याय पर भी लक्ष्य मत कर। लक्ष्य एक चैतन्य पर कर। परन्तु बीचमें साधनाकी पर्याय जहाँ है, उसे वहाँ साधना और पुरुषार्थ बीचमें रहता है। साधना उसकी बढती जाती है। मैं चैतन्य हूँ, परन्तु अभी अधूरी पर्याय है, विभाव है। उसका भेदज्ञान कर। दृष्टि चैतन्य पर कर और विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं चैतन्य हूँ। ऐसे चैतन्य पर-स्वभाव पर दृष्टि करके ज्ञाताकी धाराकी उग्रता करनी। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी ज्ञाताधाराकी उग्रता करके, भेदज्ञान करके, उसकी उग्रता करके चैतन्यमें विशेष-विशेष उग्रता करनी वही मुक्तिका मार्ग है। उसमें दर्शन, ज्ञान और लीनता तीनों आ जाते हैं। स्वयंको अपनी परिणति अपनेमें लीन करनी। उसका ध्यान रखना कि अधूरी पर्याय है इसलिये पुरुषार्थ करना बाकी रहता है।

मुमुक्षुः- आपने जो उग्रता कहा, वह पुरुषार्थ है?

समाधानः- हाँ, उग्रता यानी पुरुषार्थ। परन्तु किसकी उग्रता? अपनी ज्ञाताधाराकी उग्रता। मैं ज्ञायक हूँ, उसकी उग्रता। भेदज्ञानकी उग्रता कि यह मैं हूँ और यह मैं हूँ, ऐसे ज्ञाताधाराकी उग्रता कर। ज्ञाताधाराकी उग्रता करे, चैतन्य पर दृष्टि स्थापित कर, उसकी उग्रता कर, उसमें लीनताकी उग्रता कर। परन्तु भेदज्ञान जबतक प्रगट न हो तबतक उसका अभ्यास कर। दृष्टि स्थापनी, भेदज्ञानकी उग्रता करनी, वह तो जिसे सहज प्रगट हुआ हो, उसे भेदज्ञानकी धारा उग्र करनी रहती है। जिसे प्रगट नहीं हुआ है, उसे अभ्यास करना रहता है।

चैतन्य पर दृष्टि स्थापित करनी रहती है, बारंबार उसकी दृढता करनी, भेदज्ञानका अभ्यास बारंबार करना कि मैं चैतन्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ। ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। मैं चैतन्य स्वभावी, मेरा ज्ञानस्वभाव, ज्ञायकस्वभाव ऐसे बारंबार अभ्यास करना।