१३८ बीचमें आता है, महिमा आती है, जो ज्ञानीने मार्ग बताया ऐसे देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा भी आती है, श्रुतका चिंतवन भी आता है। परन्तु उसमें दृष्टि ऐसी रखना कि मैं मूल तत्त्व चैतन्य निर्विकल्प तत्त्व हूँ, ये सब तो बीचमें आता है। उसमें रुक जाना कि मैंने सब कुछ कर लिया, ऐसे नहीं। ऐसा गुरुदेवने बताया नहीं है। जिज्ञासुको ऐसा नक्की, प्रतीत होनी चाहिये कि मैं निर्विकल्प तत्त्व चैतन्य ज्ञायकतत्त्व हूँ। बीचमें सब आता है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, श्रुतका चिंतवन, सब आता है। लेकिन उसमें रुकना नहीं है। रुक जाता है तो अटक जाता है।
मुमुक्षुः- प्रमाणज्ञानसे परिणतिको देखता है कि मेरी परिणतिमें जो निर्विकल्प शान्ति होनी चाहिये, परिणतिमें वह निर्विकल्प शान्ति नहीं है। इसलिये उसको वहाँ गमता नहीं है। तो फिर आगे बढता है।
समाधानः- निर्विकल्प शान्ति नहीं है तबतक तो प्रगट नहीं हुआ। जब भीतरमें- से शान्ति आवे, ज्ञायकतत्त्वमें-से शान्ति आवे, विकल्प टूटकर जो शान्ति, आनन्द आवे वह तो कोई अनुपम है। विकल्प टूटकर उपयोग भीतरमें स्थिर हो जाय, बाहरका लक्ष्य न रहे, वह आनन्द तो कोई अपूर्व है। परन्तु जो भेदज्ञानकी धारा जिसको प्रगट होती है, न्यारा आत्मा, उसमें भी कुछ शान्ति होती है। भीतरमें शान्ति होती है। जबतक शान्ति नहीं लगती तबतक तो निर्विकल्प स्वरूप प्रगट नहीं हुआ। भीतरमें जब आकुलता रहती है तो आत्माका स्वरूप प्रगट नहीं हुआ।
लेकिन कषाय मन्द हो और कोई शान्ति मान ले, मन्द कषायमें, कि मुझे शान्ति हो गयी, ऐसी शान्ति नहीं। आत्माके अस्तित्वमें-से शान्ति होनी चाहिये। न्यारा, आत्माको न्यारा पहचानने-से आत्मामें-से शान्ति होनी चाहिये। विकल्प मिश्रित शान्ति नहीं। विकल्प मन्द हो और शान्ति होवे, ऐसी शान्ति नहीं। मन्द विकल्प। विकल्प टूटकर उसका भेदज्ञान करके जो शान्ति होवे वह यथार्थ शान्ति है।
मुमुक्षुः- जबतक भेदविज्ञानकी धारा जो है, तबतक निर्विकल्प शान्ति तो नहीं है।
समाधानः- निर्विकल्प शान्ति नहीं है।
मुमुक्षुः- आशिंक शान्ति है। तो वह आंशिक शान्ति उल्लंघकरके निर्विकल्प शान्तिके लिये क्या पुरुषार्थ करना?
समाधानः- ज्ञाताधाराकी उग्रता करे। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी उग्रता करे (तो) निर्विकल्प शान्ति प्रगट होती है। परन्तु निर्विकल्प होवे तब यथार्थ भेदज्ञान होता है। सहज भेदज्ञान, जिसको निर्विकल्प आनन्द प्रगट हुआ, स्वानुभूति (हुयी), उसको यथार्थ सहज भेदज्ञान होता है। उसके पहले जब निर्विकल्प आनन्द नहीं हुआ, तबतक जो भेदज्ञान करता है तो अभ्यासरूप है। वह सहज नहीं है, वह तो अभ्यासरूप है। उसको भीतरमें-