१४०
मुमुक्षुः- द्रव्यदृष्टि पर्यायका स्वीकार नहीं करती है। परन्तु प्रयोजन तो पर्यायमें पूर्ण शुद्ध होना वह है, तो क्या दृष्टिको प्रयोजनके साथ भी सम्बन्ध नहीं है?
समाधानः- दृष्टि वस्तु स्वरूपको स्वीकारती है। मूल जो अनादिअनन्त वस्तु है, अनादिअनन्त जैसी वस्तु असल स्वरूप है, असल स्वरूपको दृष्टि स्वीकारती है। और उसे साधना करनी है, (उसमें) दृष्टिका विषय अलग है और ज्ञानका विषय अलग है। ज्ञानमें ऐसा आता है कि पर्याय अधूरी है, पर्यायको पूर्ण करनी है। इसलिये दृष्टिका वह विषय नहीं है। दृष्टिका विषय अखण्ड द्रव्य है। असली स्वरूप ग्रहण करना, वस्तुका जैसा है वैसा स्वरूप ग्रहण करना वह दृष्टिका विषय है।
और ज्ञानका विषय, उसमें पर्यायके भेद, गुणके भेद, उसका अखण्ड स्वरूप, असली स्वरूप सब स्वरूप ज्ञानमें आता है। वह ज्ञानका विषय है। दृष्टिका विषय एक असली स्वरूप ग्रहण करना वह उसका विषय है। सामान्यको ग्रहण करना-असली स्वरूपको, वह उसका विषय है। और ज्ञानमें सामान्य, विशेष सब ग्रहण करना वह उसका विषय है। उसमें पुरुषार्थका प्रयोजन तो सबमें रहता ही है। परन्तु जो असली स्वरूप ग्रहण करना वह दृष्टिका विषय है। ज्ञानमें दोनों विषय आ जाते हैं।
मुमुक्षुः- अर्थात दृष्टि अपना प्रयोजन साधती है और ज्ञान दोनों साधता है?
समाधानः- दोनों। ज्ञानमें दोनों ग्रहण होते हैं।
मुमुक्षुः- दृष्टिमें क्या गुण है, वह ज्ञानको मालूम है।
समाधानः- हाँ, ज्ञानको मालूम है।
मुमुक्षुः- और दृष्टि कैसे काम करती है, वह भी ज्ञानको मालूम है।
समाधानः- वह भी मालूम है। दृष्टि क्या काम करती है? पर्यायके क्या भेद है? ज्ञानको सब मालूम पडता है। परन्तु दृष्टिकी मुख्यता बिना आगे नहीं बढा जाता। वस्तुका असली स्वरूप ग्रहण किये बिना आगे नहीं बढा जाता। उसका मूल स्वरूप यदि ग्रहण हो तो उसीमें-से सब पर्यायें प्रगट होती हैं। पर्याय कहीं बाहरसे नहीं आती है। जो वस्तु स्वभाव है उसीमें-से प्रगट होती है। अतः असली स्वरूपको ग्रहण करे तो ही प्रगट होती है।