Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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ट्रेक-२११

इसलिये दृष्टिका विषय भले असली स्वरूप है, परन्तु उसके बलमें, उसका प्रयोजन यह है कि उसके बलसे-दृष्टिके बलसे पर्याय सहजरूपसे सधती है, पर्यायमें सहजरूपसे शुद्धता प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- स्वयं प्रयोजनकी सिद्धि (होती है)।

समाधानः- उसका प्रयोजन स्वयं आ जाता है, दृष्टिमें।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर।

समाधानः- दृष्टिकी मुख्यता हो और दृष्टिका बल हो तो उसमें स्वयं उसका प्रयोजन आ जाता है। दृष्टिके बिना तो आगे नहीं बढा जाता। ज्ञान सब जानता है, परन्तु दृष्टिके बलके बिना आगे नहीं बढा जाता। दृष्टिका प्रयोजन उसमें स्वयं आ जाता है। जो दृष्टिकी मुख्यता है, उसमें पुरुषार्थका बल सहज ही आ जाता है। अतः दृष्टिका जहाँ विषय है, उसका प्रयोजन पर्यायको शुद्धरूप प्रगट करनी है, वह उसमें आ ही जाता है। दृष्टि उस पर लक्ष्य नहीं करती है,

मुमुक्षुः- फिर भी।

समाधानः- दृष्टि उसका विषय नहीं करती है। दृष्टि पर्यायको गौण करती है। दृष्टि साधनाकी पर्यायको भी गौण करती है। दृष्टि स्वयंको एकको मुख्य रखती है। तो भी उसमें साधनाकी पर्याय आ ही जाती है और उसका प्रयोजन उसमें सिद्ध हो जाता है। ऐसा दृष्टिका बल है।

मुमुक्षुः- माताजी! एक बार दृष्टि प्रगट हो, फिर उसका बल बढता है?

समाधानः- हाँ, उसका बल बढता है। मैं यह चैतन्य हूँ, मैं अन्य कुछ नहीं हूँ, मैं अखण्ड स्वरूप हूँ। ये अपूर्ण-पूर्ण पर्याय हो, वह भी मेरा मूल असल स्वरूप नहीं है। विभाव, निमित्तका अभाव-सदभावकी अपेक्षा और अपूर्ण-पूर्ण पर्यायकी अपेक्षा उसमें आती है, इसलिये जो मूल स्वरूप है वह नहीं है।

अतः असली स्वरूपको ग्रहण करे और उसके बलमें फिर उसकी निर्मल पर्याय प्रगट होती है। दृष्टिका विषय हो तो ही शुद्धताकी पर्याय प्रगट होती है। परन्तु उसके साथ ज्ञान सब विवेक करता है कि यह अपूर्ण पर्याय है और पूर्ण साधनाकी पर्याय बाकी है। ऐसे विवेक करता है, परन्तु बल दृष्टिका होता है। दृष्टिके विषयमें-से ही स्वभावकी निर्मल पर्यायें प्रगट होती हैैं। उसका बल बढता जाता है।

मुमुक्षुः- आपसे स्पष्टीकरण तो यह करवाना था कि, एक बार सम्यक दृष्टि होनेके बाद उसका बल बढता है? और उसमें पर्यायमें निर्मलता विशेष-विशेष होती जाती है।

समाधानः- हाँ, उसका बल बढता जाता है। अर्थात दृष्टिका बल बढता है।