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समाधानः- पुरुषार्थ वृद्धिगत होता है, ज्ञान तो विवेक करता है। ज्ञानमें अधिक जाने ऐसा नहीं, परन्तु उसकी उग्रता होती जाती है। दृष्टिका बल बढे, उसमें विरक्ति बढती जाती है। जो अमुक-अमुक भूमिका पलटती है, उसमें विभावसे विरक्ति और स्वभावकी परिणति बढती जाती है।
दृष्टि तो अखण्ड हो गयी। दूसरी अपेक्षासे उसे ऐसा कहनेमें आये कि उसे चारित्रमें विरक्ति कम है, इसलिये अभी लीनता कम है। चारित्रकी लीनता कम है। परन्तु दृष्टिका बल साथमें रहता है। कोई अपेक्षासे ऐस कहनेमें आये कि दृष्टिका विषय पूरा है। परन्तु अभी चारित्रकी लीनता कम है। चारित्रकी लीनता बढे तो वह विशेष आगे बढता है। परन्तु दृष्टि तो साथमें ही रहती है।
मुमुक्षुः- चारित्रमें जैसे-जैसे वृद्धि हो, उसका नाम विरक्ति बढती है?
समाधानः- हाँ, चारित्रमें लीनता, स्वरूपमें विशेष लीनता होती जाय, आचरण वृद्धिगत होता जाय तो विरक्ति बढती जाती है। विभावसे विरक्ति। भेदज्ञानकी धाराकी उग्रता हो, विभावसे विरक्ति और स्वभावकी परिणति, लीनता वृद्धिगत होती है।
मुमुक्षुः- आशंकामें यह है कि एक बार दृष्टि सम्यक हो गयी, फिर तो दृष्टिका कार्य पूर्ण हो गया। आपने कहा कि दृष्टिका बल वृद्धिगता होता है, वैसे चारित्रकी निर्मलतामें फर्क पडता जाता है, वह बराबर है।
समाधानः- फर्क पडता है। दृष्टिका विषय तो पूरा हो गया, परन्तु उसका बल बढता जाता है। दृष्टिका बल और चारित्रमें पुरुषार्थ बढता जाता है। दूसरी अपेक्षासे ऐसा कहते हैं कि चारित्र मन्द है, उसे उस प्रकारका पुरुषार्थ मन्द है, इसलिये चारित्रका पुरुषार्थ बढता जाता है, ऐसा भी कहनेमें आता है। और दृष्टि साथमें है, परन्तु दृष्टि मुख्य रहती है। इसलिये दृष्टिका बल बढता जाता है।
मुमुक्षुः- दृष्टि मुख्य रहती है, परन्तु ऐसा कहनेमें आता है कि ज्ञानीको एक समयमें पूर्ण हुआ जाता हो तो दूसरे समयका अभिप्राय नहीं है, इतनी पूर्णताकी उग्र भावना है। तो भी दृष्टिमें पर्यायदृष्टि होती ही नहीं, इतनी उग्र भावना है।
समाधानः- भावना है अभी पूर्ण हुआ जाता हो तो पूर्ण हो जाऊँ। उतनी दृष्टिमें भावना उतनी उग्र रहती है। परन्तु पुरुषार्थ नहीं उठता। पुरुषार्थकी ओरसे ऐसा लिया जाता है कि पुरुषार्थ उठता नहीं।
मुमुक्षुः- पर्यायकी पूर्णताकी ऐसी भावना होने पर भी दृष्टि पर्यायदृष्टि नहीं होती। दृष्टि तो...
समाधानः- पर्यायदृष्टि नहीं होती।
मुमुक्षुः- दृष्टि द्रव्यदृष्टि ही रहती है।