१३८ तो भी पाँच लड्डमें सबका हो जाता है।
समाधानः- मुनिओंको ऐसी ऋद्धि प्रगट होती है कि जिसके घर आहार ले, अक्षिण ऋद्धि हो तो खत्म ही नहीं हो।
मुमुक्षुः- ऐसी लालसा हमें रहा करती है कि ऐसी कुछ ऋद्ध हमें दीजिये कि जिससे..
समाधानः- ऐसी ऋद्धिको क्या करना? अन्दर आत्माकी ऋद्धि प्रगट हो, स्वभावका भेदज्ञान हो और मुक्तिका मार्ग प्रगट हो, वह ऋद्ध है। ये सब तो बाह्य (ऋद्धि हैं)। मुनिओंको अंतर दशामें सहज प्रगट हो जाती है। उन्हें उसका कोई ध्यान भी नहीं होता। मेरु पर्वत पर मुनिको वैक्रियक शरीरकी ऋद्धि प्रगट हुयी तो ध्यान भी नहीं रहा कि वैक्रियक शरीरकी ऋद्धि प्रगट हुयी है। बालि मुनिने ५०० मुनिओंको उपसर्ग दिया था। उन्हें कहा कि, ऐसा उपसर्ग है। (मुनिराजको) ऋद्धि थी यह भी मालूम नहीं था। हाथ ऐसा किया तो मालूम हुआ कि वैक्रियक शरीरकी ऋद्धि है। मुनिओंका ऋद्ध पर ध्यान भी नहीं है।