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समाधानः- पूर्व भवके उदय तो आते हैं। चतुर्थ कालमें भी आते थे। ऋषभदेव भगवान जैसे तीर्थंकर..
मुमुक्षुः- उनके पुरुषार्थसे कर्म जल जाये, ऐसा कुछ?
समाधानः- पुरुषार्थसे अन्दर कर्म जल जाते हैं। परन्तु बाहरमें कुछ एक छूट जाते हैं, परन्तु कुछ नहीं छूटे तो उदयमें आते हैं। कुछ एक जो बाहरके कर्म होते हैं शरीरके आधीन रोगके, कोई बाह्य उपसर्गका, कोई सिंह-बाघका, कोई मनुष्य उपसर्ग करे, ऐसे कोई कर्म हो तो कुछ एक छूट जाते हैं और कुछ नहीं भी छूटते हैं। और अन्दरमें राग-द्वेष छूटकर वीतराग दशा प्रगट करनी वह अपने हाथकी बात है। राग-द्वेषके जो उदय आये उसे तोडकर स्वयं वीतराग दशा करे। परन्तु बाहरसे जो उपसर्ग आते हैं, वह किसीको पलट जाते हैं, किसीको नहीं भी पलटता है।
तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव भगवान सर्वोत्कृष्ट भगवान, तीन लोकके नाथ, जिनकी इन्द्र आकर पूजा करते थे, उनके जन्म समय मेरु पर्वत पर ले गये। जब उन्होंने दीक्षा ली, तब उनको बारह महिना आहर नहीं मिला है। वे आहार लेने जाते थे, तो कोई आहार (देनेकी) विधि नहीं जानता था। कोई हीरा, मोती, माणक लेकर आते हैं, तो वापस चले जाते हैं। ऐसा उदय उनको भी था। बारह महिने तक था। तो स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। फिर बाहर आये, योग्य दिखाई न दे, आहारका योग न हो तो जंगलमें वापस आकर आत्मामें लीन (हो जाते हैं)।
मुमुक्षुः- फिर विकल्प भी नहीं आता। समाधानः- फिर विकल्प नहीं आता। स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। फिर वापस विकल्प आये तो नगरमें जाते हैं, कैसा योग बनता है? जुगलिया जानते नहीं है। बस, हीरा-मोती लेकर आते हैं। आखिरमें श्रेयांसकुमारने आहार दिया।