मुमुक्षुः- .. होने पर भी मात्र अशुद्धरूप क्यों परिणमता है? परका संग करता है तभी अशुद्धरूप उत्पन्न होता है। उसमें क्या कहना है?
समाधानः- पारिणामिक, स्वभाव पारिणामिक है, लेकिन वर्तमान पर्याय तो अशुद्धरूप परिणमती है। स्वयं पर ओर जाता है, अपने पुरुषार्थकी मन्दता है, इसलिये उसे जो उदय आता है, उसमें स्वयं जुड जाता है। सबमें पुरुषार्थकी मन्दता है। स्वयंकी ओर मुडता नहीं, सबमें स्वयंका ही कारण है। उसे किसीका कारण लागू नहीं पडता। अकारण पारिणामिक द्रव्य है। उसे कोई रोकता नहीं, कर्म रोकते नहीं, कोई नहीं रोकते। स्वयं रुका है, स्वयंसे। अपनी रुचि बाहर जाती है। निमित्तकी असर स्वयंको होनेका कारण स्वयंका है, दूसरेका नहीं है।
मुमुक्षुः- परसंग कुछ नहीं करवाता होगा?
समाधानः- परसंग कुछ नहीं करवाता, स्वयंकी क्षतिके कारण परकी असर स्वयंको होती है। परन्तु स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दता हो तो स्वयं ऐसे निमित्त, सत्संग आदि निमित्तोंमें सत्संग करे। स्वयंकी उतनी शक्ति नहीं हो, निमित्तसे छूटकर अपना कर सके ऐसी, पुरुषार्थकी मन्दता हो तो देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य हो वहाँ रहनेका विचार, उसकी भावना करे। ऐसा समागम, योह नहीं हो तो स्वयं अपने पुरुषार्थसे दृढ रहे।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थकी मन्दता हो तो ऐसे संगसे उसे लाभ होनेका कारण है?
समाधानः- पुरुषार्थकी मन्दता हो तो ऐसा समागम निमित्त है, तैयारी तो स्वयंको करनी है। जिसे लगनी होती है, उसे स्वयंको असर होती है। अपनी लगन लगी हो उसे भावना होती ही है कि देव-गुरु-शास्त्रका सान्निध्य प्राप्त हो, समागम प्राप्त हो, ऐसे विचार उसे आते ही हैं, जिसे लगन लगी हो उसे। दूसरोंके परिचयमें आनेकी उसे रुचि नहीं होती, जिसे आत्माकी रुचि है उसे। फिर बाह्य संयोगके कारण आ जाये वह अलग बात है, परन्तु उसको स्वयंको रुचि नहीं होती।
मुमुक्षुः- परसंग ही करवाता है।
समाधानः- शास्त्रमें अनेक प्रकारकी बातें आती हैं। निमित्तकी ओरसे बात आये, उपादानकी ओरसे बात आये। सब प्रकारकी बात आये, उसमें नक्की स्वयंको करना