२२० मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ। यह विभावभाव मैं नहीं हूँ, परन्तु ये जो स्वभाव है जाननेवाला वह मैं हूँ, इस प्रकार यथार्थ श्रद्धा करके फिर लीनता करनी। श्रद्धा यथार्थ हो, ज्ञान यथार्थ हो तो लीनता यथार्थ हो।
उसकी श्रद्धामें बराबर न हो कि यह मैं या यह मैं, इस तरह श्रद्धा ठीक न हो तो उसकी लीनता नहीं होती। श्रद्धा तो यथार्थ (होनी चाहिये कि), यह है वही मैं हूँ। यह ज्ञायकका अस्तित्व वही मैं हूँ, ये जो विभावभाव और रागमिश्रित भाव है वह मेरा मूल स्वभाव नहीं है। मूल स्वभाव जो ज्ञायक अकेला निर्मल ज्ञायक जाननेवाला, उसमें कोई भेदभाव या राग या उसमें कहीं अटकना नहीं, अकेला निर्मल जाननेवाला है वही मैं हूँ, इस प्रकार अस्तित्व ग्रहण करना और ऐसी श्रद्धा यथार्थ करनी, तो उसमें लीनता हो।
मुमुक्षुः- लक्ष्यके साथ लक्षणके भावभासनके विषयमें विचार करें कि लक्षणका भावभासन। जानता है, यह जानना.. जानना.. जानना हो रहा है वह कोई जडमें नहीं होता, ऐसा अनुमान (होता है), ज्ञानका वेदन होता है परन्तु वह है तो अनुमान ज्ञान, अनुभव ज्ञान तो नहीं है, अनुमान ज्ञान है कि यह जानना-जानना हो रहा है, उस परसे जाननेवाला जो है वह मैं हूँ, तो इसे ज्ञायकका भावभासन कह सकते हैं?
समाधानः- उसे बराबर पहचाने तो भावभासन हो, उसके भावको पहचाने तो वह भावभासन है। उसके स्वभाव परसे पहचाने, भावभासन यानी उसका स्वभाव है उसे पहचाने तो वह भावभासन कहलाता है।
मुमुक्षुः- यहाँ माताजी! स्वभाव यानी ज्ञान लेना?
समाधानः- हाँ, ज्ञानको पहचाने।
मुमुक्षुः- ज्ञानका स्वभाव अर्थात जानना.. जानना.. जानना। विशेष लें तो स्वको जानना और परको जानना। ऐसा जानपना वैसे तो वह अतीन्द्रिय है अथवा तो अमूर्तिक है इसलिये इन्द्रियका विषय होता नहीं। अभी तो मानसिक ज्ञानमें उसके स्वरूपका ख्याल आता है कि ये जानना.. जानना हो रहा है, वह जहाँसे उत्पन्न हो रहा है, वह जाननेवाला एक अभेद ध्रुव तत्त्व सो मैं हूँ, ऐसा विचार आये उसे सविकल्प भावभासन कहते हैं?
समाधानः- बुद्धिपूर्वकका भावभासन है। बुद्धिपूर्वक विकल्पयुक्त भावभासन है।
मुमुक्षुः- हाँ, विकल्प-विकल्पात्मक।
समाधानः- बुद्धिपूर्वक युक्तिसे नक्की किया है।
मुमुक्षुः- वह भावभासन तो निर्विकल्प अनुभव कालमें होता है। उस प्रकारका तो होता है, परन्तु इसमें भी उसे स्पष्ट .... ज्ञानभावमें .. उसमें उसे ख्यालमें है कि