२२४ कैसे ग्रहण हो? ज्ञायकका अस्तित्व कैसे ग्रहण हो?
मुमुक्षुः- ज्ञानके निर्णयमें ऐसा होना चाहिये कि इस कार्यसे ही मुझे लाभ है। वह वर्तमान पात्र है।
समाधानः- इससे मुझे लाभ है, इस प्रकार बारंबार उसका अभ्यास रहे, घोलन चलता रहे। ज्ञायक कैसे ग्रहण हो? ज्ञायककी महिमा लगती रहे।
मुमुक्षुः- ... तब तक तत्त्वका घोलन, तत्त्व विचार करना। तत्त्व विचार माने बाह्य विचार नहीं परन्तु जो आप कहते हो वह?
समाधानः- प्रयोजनभूत तत्त्व विचार।
मुमुक्षुः- क्योंकि बाह्य शास्त्रका घोलन हो, उसे तो कोई रास्ता ही नहीं है। चाहे जितना शास्त्रज्ञान क्षयोपशम हो, वह घोलन नहीं है।
समाधानः- वह घोलन नहीं। मूल तत्त्वका घोलन, चैतन्यका घोलन। अन्दरका घोलन, तत्त्व विचार। फिर उसमें ज्यादा टिक न सके तो शास्त्रके विचार आये वह अलग बात है। परन्तु प्रयोजनभूत यह तत्त्व विचार। मैं चैतन्य द्रव्य, मेरे गुण, मेरी पर्याय वह मैं। मैं सबसे न्यारा हूँ, कैसे न्यारा होऊँ? मुझे अंतरमें-से भेदज्ञान कैसे प्रगट हो? ऐसे विचार।
.. भगवानके, गुरुके आँगनमें टहले लगाये, उस प्रकार ज्ञायकको ग्रहण करनेके लिये ज्ञायककी ओर बारंबार टहेल लगाता रहे। बारंबार उसीका अभ्यास करता रहे।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- भगवानके दर्शनके लिये, जिसे भगवानके दर्शनकी भावना है, बाहरसे, तो वह भगवानके मन्दिर पर, भगवानके द्वार पर टहेल लगाता है कि भगवानके द्वार खुले और दर्शन हो। ऐसे गुरुके दर्शन हेतु गुरुके आँगनमें टहेल लगाये। ऐसे चैतन्यके आँगनमें टहेल लगाता रहे कि चैतन्यके दर्शन कैसे हो? चैतन्यका स्वभाव क्या? चैतन्य कैसे स्वभावका है? उसकी महिमा क्या? इस प्रकार बारंबार टहेल-उसका अभ्यास करता रहे।
मुमुक्षुः- बहुत बातें आती हैं।
समाधानः- वहाँ भगवानके द्वारसे छूट जाय, थक जाय तो कुछ नहीं होता। इसलिये कहते हैं, अन्दरसे थकना नहीं।
मुमुक्षुः- थकना नहीं चाहिये, निराश नहीं होना चाहिये।
समाधानः- निराश नहीं होना चाहिये। गुरुकी महिमा लगे तो गुरुके आँगनमें गुरुके दर्शनके लिये टहेल लगाता है। इस प्रकार यह चैतन्यके आँगनमें बारंबार चैतन्यके विचार, चैतन्यका अभ्यास, उसीका रटन होना चाहिये। यह दृष्टान्त देव-गुरु-शास्त्रका।