२२८ है। उसमें कोई जातका (राग नहीं है)। भगवान तो मुनि जैसे वीतरागी हैं। उनकी प्रतिमा भी, जैसे समवसरणमें विराजे हैं, वैसी प्रतिमा होनी चाहिये। जैसी भगवानको वीतराग दशा हुयी, फिर जैसा भाव हुआ उसकी प्रतिमा वैसी होती है। जैसे भगवान हैं, वैसी प्रतिमा। और प्रतिमामें फेरफार करना वह यथार्थ तो है नहीं।
इसलिये क्या करना? अपनेआप समझमें आ जायगा। जो यथार्थ होता है.. वह यथार्थ है। बाकी तो उसमें भूल है। भगवान समवसरणमें बैठे हैं वे तो वीतराग हैं। उनकी दृष्टि नासाग्र है। मुनि जैसे हैं, वैसे पूर्ण वीतराग। मुनि तो साधक दशा है, ये तो पूर्ण हो गये हैं। समवसरणमें भगवान हैं, वैसी प्रतिमा होनी चाहिये। उसमें श्वेतांबरोंने फेरफार कर दिया। इसलिये जैसा सच्चा भावमें होवे, ऐसा बाहरमें नमस्कार भी उनको होता है। परन्तु ऐसा समझमें नहीं आवे तो तब आपोआप समझमें आ जायगा। यथार्थ तत्त्व समझने से सब समझमें आ जायगा। उसका व्यवहार भी सच्चा होता है।
जैसे ज्ञायकको समझता है, वैसे सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको समझे। ऐसा व्यवहार भी सच्चा होता है। यथार्थ भगवान जैसे हैं, वैसी स्थापना होवे उसको नमस्कार होता है। ... भाव अपनेआप समझमें आ जायगा। जब अपने भावमें सच्चा समझमें आ जायगा निश्चय और व्यवहार, तब अपनेआप छूट जायगा। अब नहीं छूटता है तबतक विचार करना कि सच्चा क्या है? जब सच्चा समझमें आयगा कि इसमें क्या नुकसान है, समझमें आयगा तो अपनेआप छूट जायगा। और नहीं छूटता हो तो अपनी इच्छा। जैसे निश्चय यथार्थ, वैसे व्यवहार यथार्थ होता है।
मुमुक्षुः- जीव समझता हो, फिर भी ऐसी कोई सामाजिक कार्य वश ऐसे आयतनके अन्दर जाना हो, नमन न करे, परन्तु जाना पडे, ऐसे कोई सामाजिक बन्धनमें हो तो जाने-से कोई (नुकसान है)? दृष्टान्त ... ऐसे स्थानमें जाना पडे, हमारे जैसे गृहस्थोंको, तो उसमें दोष है?
समाधानः- अपने भाव पर है। स्वयंके संयोग स्वयं समझ लेना। वैसे संयोगमें अपनी उतनी शक्ति न हो लोकव्यवहार जीतनेकी, तो अपने संयोगको स्वयं समझ लेना। बाकी न हो तो अपने लिये जान लेना। मार्ग तो ऐसा नहीं होता, परन्तु अपनी शक्ति न हो तो संयोगवश जाय वह एक अलग बात है। अपने लिये बात अलग है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- ..
मुमुक्षुः- स्वयंकी इतनी कचास है कि लोकव्यवहारको जीत (नहीं सकता है)।
समाधानः- अपने लिये स्वयंको समझ लेना। संयोगवश जाना पडे। राग-द्वेष हो ऐसा हो, ऐसे संयोगको स्वयं समझ लेना।प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!