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एक साथ साधकदशाकी पर्यायमें रहते हैं। (आत्मामें) लीन होते-होते केवलज्ञान होता है। अंश होवे तो संवर और विशेष शुद्धि होनेसे निर्जरा होती है और अल्प विभाव है इसलिये आस्रव होता है। सब एक साथ होते हैं।
ज्ञानधारा और उदयधारा साथमें रहती है। अभी पूर्ण नहीं हुआ है, इसलिये आस्रव भी अल्प रहता है, संवर भी होता है, निर्जरा भी होती है, सब होता है। आस्रव कोई ऊपर-ऊपर नहीं होता और संवर भी ऊपर-ऊपर नहीं होता। शुद्धात्माकी दृष्टि करने-से, मैं अनादिअनन्त शाश्वत हूँ, ऐसी दृष्टि करने-से, उसका ज्ञान करने-से, उसमें लीनता करने-से संवर होता है। उसकी अल्पता है, पूर्ण शुद्धि नहीं हुयी है इसलिये आस्रव भी रहता है।
विभावका निमित्त कर्म है और अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। पुरुषार्थकी मन्दतासे उतना विभाव होता है। जितना पुरुषार्थ हुआ, ज्ञानधारा प्रगट हुयी उतना संवर होता है। साधकदशा है न। द्रव्य पर दृष्टि है। अनादिअनन्त द्रव्य शुद्ध है तो साधक दशामें शुद्धि, अशुद्धि ये सब साथमें रहते हैं। ज्ञानधारा और उदयधारा। भेदज्ञानकी धारामें सब रहता है। पूर्णता होवे तो अकेली वीतराग दशा (होती है)। साधक दशामें दो धारा रहती है, दो धारा चलती है।
पर्याय स्वतंत्र है। लेकिन पर्याय ऊपर-ऊपर नहीं होती है, द्रव्यके आश्रयसे होती है। पर्याय ऊपर-ऊपर होवे तो पर्याय द्रव्य हो जाय। द्रव्यके आश्रयसे पर्याय होती है। पर्याय स्वतंत्र है तो भी द्रव्यके आश्रयसे पर्याय होती है।
मुमुक्षुः- हमारे यहाँ मन्दिर नहीं है, तो श्वेतांबर मन्दिरमें जाये तो हमारा क्या नुकसान होता है? ... श्वेतांबर मन्दिरमें नहीं है, तो उसमें हमारा क्या अहित होता है? हम देव-गुरु-शास्त्रकी, आत्माकी बात सुनते हैं, समझते हैं, फिर भी उसमें हमारा क्या नुकसान होता है?
समाधानः- बाहरमेें क्या करना वह आपोआप समझमें आयगा। और ज्ञायक मैं हूँ, यह चैतन्य स्वभाव मैं हूँ और विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। ये जडतत्त्व है। शरीर भिन्न है, विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ। ऐसी भेदज्ञानकी बात समझो, फिर यथार्थ देव-गुरु-शास्त्र कैसे होते हैं, वह अपनेआप आ जायगा। फिर नुकसान क्या होता है, उसका विशेष विचार करने से अपनेआप समझमें आ जायगा। मूल प्रयोजनभूत ज्ञायकको समझो। उसमें सच्चे देव-गुरु-शास्त्र आते हैं।
देव कैसे होते हैं? वीतरागी होते हैं। जो समवसरणमें देव विराजते हैं, वे वीतरागी होते हैं। विकल्प नहीं है, कुछ नहीं है। स्वरूपमेें लीन हो गये हैं। उनकी नासाग्र दृष्टि है और वे वीतराग हैं। समवसरणमें बैठे हैं भगवान तो, उसमें कोई राग नहीं