Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1467 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-५)

२३४ किसमें दिखता है और यह वस्तु क्या है? ऐसी कौन-सी किमती वस्तुमें दिखाई देता है? उसे नहीं देखता। ये सब दिखता है उसके भ्रमके घोटालमें पडा है।

चिडिया आये तो ये दूसरा क्या दिखता है? चिडियाकी बुद्धि काम नहीं करती है। उसके साथ झघडा कर-करके मानों दूसरी चिडिया आ गयी है, ऐसा उसे हो जाता है। वस्तु है कि जिसमें यह सब दिखाई देता है।

... जाननेका है उसे नहीं देखता है, ये सब चित्र-विचित्रतामें तन्मय हो गया है। चित्र-विचित्रतामें भले ही थक जाय, आकुलता हो, तो भी उसीमें लगा रहता है। ... लेकिन कुछ मालूम नहीं पडता है कि यह मैं। बाहर सब.... तू ही है, लेकिन तेरे ज्ञानको तू बाहर लेने जा रहा है। आनन्द तेरा है और तू लेने जा रहा बाहर, ऐसा करता है।

आदमी जितना देख सके उतना तन्मय होकर एक-एक देखे उतना देख नहीं सकता। भिन्न हुआ आदमी, न्यारा हुआ है वह ज्यादा देख सकता है। शीखर पर आदमी खडा हो वह ज्यादा देख सकता है। वैसे ज्ञानके शिखर पर खडा है, वह भिन्न हो तो ज्यादा देख सकता है, लेकिन वह जानता नहीं है। शिखर पर आ नहीं पाता। ज्ञानमें महिमा नहीं आती है। ज्ञेयकी महिमा आती है, ऐसी ज्ञानकी महिमा नहीं आती है। ज्ञान अर्थात जानना। ज्ञानकी महिमा नहीं आती है। वह विभिन्नता दिखती है उसकी महिमा आती है। विभिन्नता (देखता है), लेकिन अन्दर खडा तो रह, उसमें कैसा है? उसका तू निश्चय तो कर। उसीमें सब है, सब विभिन्नता उसमें है। लेकिन वह बाहर (जाता है), उसे विश्वास नहीं आता है। अरूपी चैतन्यद्रव्यका विश्वास नहीं आता है।

... कुछ अज्ञात नहीं रहेगा। जाननेके लिये व्यर्थ प्रयत्न करता है। अन्दरका स्वघर भी ज्ञात होगा और सब ज्ञात होगा। कुछ अज्ञात नहीं रहेगा, लेकिन उसे बाहर ही व्यर्थ प्रयत्न करना है। जाननेका स्वभाव है इसलिये सब जानना है। ज्ञेयके भेद कर- करके जानना है। इतना बाहरका जाननेका (रस है), बाहरसे जाननेको आकुल-व्याकूल (होता है)।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!