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बाहर अनन्त कालसे रुका, बाह्य क्रियामें रुका, शुभभावसे धर्म होता है ऐसा माना। परन्तु उस शुभभावसे पुण्य बन्ध हुआ, देवलोकमें गया, परन्तु स्वभाव ग्रहण नहीं किया। गुरुदेवने स्वभाव ग्रहण करनेका मार्ग बताया। कि तू चैतन्य है उसे ग्रहण कर। बाकी सब विभाव है, तेरा स्वभाव नहीं है। चैतन्यको अंतरमें-से ग्रहण कर तो ही यथार्थ मुक्तिका मार्ग है। और उसमें स्वभावको ग्रहण करने-से ही यथार्थ मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। धर्म उसमें है, मुक्तिका मार्ग उसमें है। पहले आंशिक होता है, फिर उसकी साधक दशा बढते-बढते विशेष होता है।
मुमुक्षुः- छठवीं गाथा है उसमें प्रथम पैरेग्राफमें भी ज्ञायक आता है और दूसरे पैराग्राफमें भी ज्ञायक आता है। तो प्रथममें प्रमत्त-अप्रमत्तसे रहित कहा और दूसरेमें परको जानने पर ज्ञायकपना प्रसिद्ध है, ऐसे बात ली। तो उसमें...?
समाधानः- सबमें ज्ञायक ही है। प्रमत्त-अप्रमत्तमें भी तू ज्ञायक रहा है। और परको जाननेमें भी तू ज्ञायक रहा है। पररूप नहीं हुआ है। तू ज्ञायक है। प्रत्येक अवस्थामें तू ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। ज्ञायक पर दृष्टि कर। तू ज्ञायक ही है, ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षुः- ज्ञायक माने त्रिकाली ध्रुव द्रव्य या...?
समाधानः- त्रिकाल अनादिअनन्त ज्ञायक है वह। उसे ग्रहण कर। पर ऊपर- से दृष्टि उठाकर तू ज्ञायकको ग्रहण कर। कोई भी साधक दशाकी पर्यायमें भी तू ज्ञायक ही है। विभावकी पर्यायमें, साधककी पर्यायमें, ज्ञेय ज्ञात हो उस दशामें भी तू ज्ञायक है।
ज्ञायक कब ज्ञात हो? उसे साधककी पर्याय प्रगट हो तब ज्ञायक ज्ञात होता है। ज्ञायक तो अनादिका है, परन्तु वह ज्ञायक ज्ञायकरूप-से वेदनमें कब आवे? कि उसकी साधक दशाकी पर्याय प्रगट हो तो। स्व सन्मुख उसकी दृष्टि जाय, स्व सन्मुख अपनेको देखे तो ज्ञायक ज्ञायकरूप है। स्व प्रकाशनकी दशामें भी ज्ञायक, बाहर जाये तो भी ज्ञायक। ज्ञायक तो ज्ञायक ही है।
मुमुक्षुः- एक बार जिसको स्व प्रकाशन हो गया, उसे फिर पर प्रकाशनमें भी ज्ञायक प्रसिद्ध है, ऐेसे लेना?
समाधानः- सर्व प्रकारसे। वहाँ तो साधक दशाकी बात है। सर्व प्रकाररसे तू ज्ञायक ही है। स्व प्रकाशनमें ज्ञायक और बाहर जाय तो ज्ञायक। ज्ञायकताको छोडता नहीं। साधक दशामें बाहर जाय तो भी ज्ञायक है और अंतरमें ज्ञायक है। ज्ञायक तो ज्ञायक है।
अनादिअनन्त... तो भी ज्ञायक ही है। बाहर जाये तो एकत्वबुद्धि हुयी, परन्तु वह ज्ञायक ज्ञायकता छोडता नहीं। उसके वेदनमें ऐसा आता है कि मैं पररूप हो गया। परन्तु ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। ज्ञायक अपना स्वभाव छोडता नहीं।