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देखना चाहिये। उनकी वाणीमें क्या आता था? वह अपूर्वता कैसे आती थी? उनका आत्मा क्या कार्य करता है? भेदज्ञानकी धारा कैसी थी? वे अपूर्व आत्माकी कैसी बात करते थे? वह देखना चाहिये। बाहरसे देखने-से देखना (नहीं हुआ)। उनका अंतर देखना चाहिये। उनकी अंतरकी शैली-अंतरकी परिणति-जो काम करती थी उसको देखना चाहिये। अंतर परिणति जो काम करती थी वह उनकी वाणीमें आता था। वाणीके पीछे वे क्या कहते थे, उसका आशय समझना चाहिये। वह देखना चाहिये।
मुमुक्षुः- निकटमें एक क्षेत्रमें रहते हुए भी, ऐसे परम कृपालु महान गुरुदेव, चैतन्य हीरा हिन्दुस्तानका था। जिनका अंतरंगका अभिप्राय... दर्शन और मिलन हुआ है। बाकी तो..
समाधानः- उनका अभिप्राय नहीं समझा तो कहाँ मिले हैं। हिन्दुस्तानमें वे महान प्रतापी थे। सबको जगा दिया। सबकी रुचि पलट गयी, उनकी वाणीके निमित्तसे। वे क्या कहते थे, वह समझना चाहिये। हजारों, लाखों जीवोंकी रुचि पलट गयी। सब क्रियामें धर्म मानते थे। (उसके बजाय) अंतरमें करना है, यह सबको बता दिया। परन्तु विशेषरूपसे वे क्या कहते थे, यह समझना चाहिये। उनकी परिणति कैसी थी और मार्ग क्या बताते थे? वह समझना चाहिये।
समाधानः- .. स्वयंको यथार्थ विश्वास करना चाहिये। विश्वास करना चाहिये कि यही मैं हूँ, अन्य मैं नहीं हूँ। ऐसे विश्वास आवे तो हो। अन्दर शंकाशील हो तो कुछ होता नहीं। यही मैं हूँ, ऐसा विश्वास होना चाहिये। यह मैं चैतन्य तो चैतन्य ही हूँ, यह मैं नहीं हूँ। यह ज्ञान या यह ज्ञेय या यह ज्ञान या सामान्य, विशेष ऐसे शंकाशील होता रहे तो कुछ नक्की नहीं होता। स्वयंको अन्दर यथार्थ होना चाहिये कि यह ज्ञायक स्वभाव है वही मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ। परन्तु विकल्पात्मक नहीं, अंतरमें स्वभाव ग्रहण करे तो हो। स्वभावको ग्रहण किये बिना नहीं होता है।
मुमुक्षुः- ... ज्ञायक। और ज्ञायक माने अनन्त गुणका अभेद पिण्ड।
समाधानः- उसे अनन्त गुण-अनन्त गुण ऐसे विकल्प नहीं आते हैं। उसे श्रद्धामें ऐसा आ जाता है कि मैं अनन्त शक्तिसे भरा द्रव्य हूँ। एक-एक गुण पर भिन्न-भिन्न दृष्टि नहीं करता कि यह ज्ञान है, यह दर्शन है, यह चारित्र है। विचार करे वह अलग बात है, परन्तु उसे दृष्टिमें तो अखण्ड ज्ञायक, ज्ञायकका पूरा अस्तित्व आ जाता है। पूरा अस्तित्व अंतरमें-से ग्रहण होना चाहिये। और वह कब ग्रहण हो? कि अंतरमें जब लगनी लगे कि मैं मेरा स्वभाव कैसे ग्रहण करुँ? ऐसी अंतर-से लगे तब उसे स्वभाव ग्रहण होता है। बाकी विचारसे ग्रहण करे वह एक अलग बात है। अंतरमें- से ग्रहण करे तब यथार्थ होता है।