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समाधानः- उपयोग अपना चला जाय, इसलिये राग भी अबुद्धिपूर्वक हो जाता है। उपयोग गया तो राग भी मन्द हो गया है। बाहर उपयोग आवे तो राग भी आता है।
मुमुक्षुः- तीव्रता ले लेता होगा?
समाधानः- हाँ।
मुमुक्षुः- मतिज्ञान, श्रुतज्ञानके अन्दर पुरुषार्थ है? रुचिमें स्वभावका जोर रहता है, बोलनेमें बहुत बार आता है। लेकिन उपयोग हटे तो न।
समाधानः- बोलना, विचारमें आना और करना...
मुमुक्षुः- अलग बात हो गयी।
समाधानः- जानना दूसरी बात है और करना दूसरी बात है।
मुमुक्षुः- ग्यारह अंगमें नौ पूर्वका ज्ञान जाननेमें खुला, लेकिन अनुभूति बिना .. रह गये, कोरेके कोरे।
समाधानः- जाननेकी बात दूसरी होती है, करनेकी बात (दूसरी है)।
मुमुक्षुः- जीव हमारा ठगा ना ऐसे, ज्ञानका क्षयोपशम बहुत देखा, बहुत धर्मात्मा होंगे, ऐसा होंगे, ऐसा भव-भवमें, या क्रियाकाण्डमें देखकर ठगा गया। लेकिन अंतरकी दृष्टि और अनुभवके कार्यकी कला तो बिलकूल रह गयी।
समाधानः- रुचि यथार्थ होवे तो अपनी ओर आये बिना रहता नहीं। रुचि होवे तो।
मुमुक्षुः- आजकल एक ऐसा वातावरण-माहोल चलता है, बहुत-से ऐसा कहते हैं, जब मेरेको आपके प्रताप-से कहीं बाहर जानेका बन जाता है, तब प्रवचन आदिके योगमें बडा दुःख लगता है। तो ऐसा एक प्रश्न खडा है कि हम तो कानजीस्वामी गुरुदेवके पास गये हुए हैं। ऐसा कहते हैं। कानजीस्वामीका दर्शन किया है, प्रवचन सुना है, ऐसा। और कानजीस्वामी गुरुदेवकी जय भी सब लोग बोलते हैं। ऐसा एक वातावरण-सा माहोल आता है। तो उस समय मैं कहता हूँ, वचनामृत आदि चलता है, और भी बातें चलती है। तो मैंने कहा, अगर गुरुदेवश्रीके पास आ पहुँचे हैं तो गुरुदेवश्रीको आपने देखा है तो क्या देखा? क्या गुरुदेवको शरीर देखा? क्या उनकी ..देखी? क्या उनके वस्त्र देखे? क्या उनकी वाणी देखी? शैली देखी? ज्ञानका क्षयोपशम देखा? कानजीस्वामी किसे कहते हैं? ये पहले मेरेको आप बता दो। उसके बादमें आपसे बात करुँ। मेरा अभिप्राय तो.. मैं बालक हूँ, आपका बच्चा हूँ, लेकिन फिर भी ज्ञानीका क्या देखना कि जो देखा हुआ सच्चा देखा कहनेमें आवे? जिसका दर्शन करने-से वास्तवमें कानजीस्वामी मिले हैं, मेरी सन्धि जुड जाय। ऐसा मेरा निवेदन है।
समाधानः- अंतर-से देखना चाहिये। उनका आत्मा क्या कार्य करता था? वह