Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 227.

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अमृत वाणी (भाग-५)

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ट्रेक-२२७ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- आप जो अस्तित्वका ग्रहण कहते हो कि निज अस्तित्वका ग्रहण करना। और त्रिकाल ज्ञायककी दृष्टि करनी, दोनों एक ही बात है?

समाधानः- दोनों एक ही बात है। एक ज्ञायकमें त्रिकाल आ गया। वर्तमान जिसका अस्तित्व ज्ञायकरूप है, वह उसका त्रिकाल अस्तित्व है। वर्तमान जो सतरूप अखण्ड ज्ञायक है वह तो त्रिकाल अखण्ड ज्ञायक ही है।

मुमुक्षुः- .. उसका कोई सरल उपाय?

समाधानः- वह दृष्टि तो स्वयं अंतरमें-से जागृत हो तो हो। दृष्टि मात्र विकल्प वह तो भावना करे, लगन लगाये। अंतर-से जिसको लगी हो उसकी दृष्टि अंतरमें जाती है। जिसे अंतरमें लगन लगे, बाह्य दृष्टि और बाह्य तन्मयतासे जो थक गया है, जिसे अंतरमें कहीं चैन नहीं पडता। बाह्य दृष्टि और बाह्य उपयोग, बाहरकी आकुलतासे जिसको थकान लगी है और अंतरमें कुछ है, अंतरके अस्तित्वकी जिसे महिमा लगी है। अंतरमें ही सब है, ऐसी जिसको अंतरसे महिमा लगे तो उसकी दृष्टि बदल जाती है। तो वह स्वयं चैतन्यको ग्रहण कर लेता है। जिसे लगे वह ग्रहण किये बिना नहीं रहता। नहीं तो वह ऊपर-ऊपर से विचार करता रहे। बाकी दृष्टि पलटनेके लिये अंतरमें- से लगन लगे तो दृष्टि पलटती है।

मुमुक्षुः- ... तो ज्ञात होगा, ऐसा कह सकते हैं?

समाधानः- परको जानना बन्द करना ऐसा नहीं। एक क्षण विभावमें-से तन्यता छोडकर उसका भेदज्ञान करे तो स्व ज्ञात होगा। जानने ओर नहीं। पर-ओर जो उपयोग (तन्मय हो रहा है, उसे छोडकर), राग और विकल्पकी एकत्वबुद्धि तोडकर स्वमें जा तो स्वका वेदन होगा।

जाननेका तो उपयोग पलटता है। अन्दर जो जाननेका स्वभाव है, उसका नाश नहीं होता। जाननेका स्वभाव है उसका नाश नहीं होता। रागके साथ एकत्वबुद्धि है, उसे क्षणभरके लिये तोड दे। क्षणबर यानी अन्दरमें-से ऐसी प्रज्ञाछैनी द्वारा उसका ऐसा भेदज्ञान कर तो स्वकी स्वानुभूति होगी। एक क्षणभरके लिये। स्वभाव और विभावमें ऐसी तीक्ष्ण प्रज्ञाछैनी द्वारा स्वयं स्वसन्मुख हो जाय, तो स्वका वेदन होगा। उसका