આપ જે ‘અસ્તિત્વ’નું ગ્રહણ કહો છો અને ત્રિકાળી જ્ઞાયકની દ્રષ્ટિ કરવી તે બંને એક જ બાબત છે? 0 Play आप जे ‘अस्तित्व’नुं ग्रहण कहो छो अने त्रिकाळी ज्ञायकनी द्रष्टि करवी ते बंने एक ज बाबत छे? 0 Play
દ્રષ્ટિ કરવા માટે પુરુષાર્થ કેવી રીતે કરવો? 0:32 Play द्रष्टि करवा माटे पुरुषार्थ केवी रीते करवो? 0:32 Play
(પરને જાણવાનું બંધ કરીએ) તો ‘સ્વ’ ‘સ્વ’ તરીકે જણાય એમ કહી શકાય? 1:35 Play (परने जाणवानुं बंध करीए) तो ‘स्व’ ‘स्व’ तरीके जणाय एम कही शकाय? 1:35 Play
ભગવાનકે દ્રવ્ય-ગુણ-પર્યાય પહિચાને તો આત્મા પહિચાનમેં આયે લેકિન ભગવાનકે દર્શન સમવસરણમેં અનંતબાર કિયે તો ભી આત્મા પહિચાનનેમેં નહીં આયા? (પ્રશ્નકા સાર) 7:10 Play भगवानके द्रव्य-गुण-पर्याय पहिचाने तो आत्मा पहिचानमें आये लेकिन भगवानके दर्शन समवसरणमें अनंतबार किये तो भी आत्मा पहिचाननेमें नहीं आया? (प्रश्नका सार) 7:10 Play
કેવલી ભગવાનકો તો આત્મકે પ્રદેશ પ્રત્યક્ષ દિખતે હૈ, છદ્મસ્થકો અનુભવકાલમેં આત્માકે પ્રદેશ પ્રત્યક્ષરૂપસે ક્યા અનુભવમેં આતે હૈં? 9:10 Play केवली भगवानको तो आत्मके प्रदेश प्रत्यक्ष दिखते है, छद्मस्थको अनुभवकालमें आत्माके प्रदेश प्रत्यक्षरूपसे क्या अनुभवमें आते हैं? 9:10 Play
આપને ફરમાયા કિ વિકલ્પકો જ્ઞાન જાન લેતા હૈ, વૈસે હી અરૂપીકો જાન લેતા હૈ? 11:30 Play आपने फ़रमाया कि विकल्पको ज्ञान जान लेता है, वैसे ही अरूपीको जान लेता है? 11:30 Play
પૂજ્ય ગુરુદેવશ્રી ઔર આપકે પાસ હમ બહુત સમયસે હૈ ફિર ભી ઇતના દુર્લભ ક્યોં પડ રહા હૈ? 13:05 Play पूज्य गुरुदेवश्री और आपके पास हम बहुत समयसे है फ़िर भी इतना दुर्लभ क्यों पड रहा है? 13:05 Play
રાજમલજી (સમયસાર કલશટીકામેં) કેવલી ભગવાનકે જ્ઞાનકી નોંધમેં કૌન જીવ કબ મોક્ષ જાયેગા...ફિર ઉધર જોર ક્યું દિયા ગયા હૈ કિ જબ સ્વભાવકા પુરુષાર્થ હોગા તબ સ્વાનુભવ હોગા ? 14:30 Play राजमलजी (समयसार कलशटीकामें) केवली भगवानके ज्ञानकी नोंधमें कौन जीव कब मोक्ष जायेगा...फ़िर उधर जोर क्युं दिया गया है कि जब स्वभावका पुरुषार्थ होगा तब स्वानुभव होगा ? 14:30 Play
(પ્રશ્નકા સારાંશ) આત્મા સર્વ પ્રદેશસે જાનનેમેં આતા હૈ કિ યા કોઈ સ્થાન વિશેષસે જાનનેમેં આતા હૈ? (જૈસે રંગ આંખકે પ્રદેશોંસે જાનનેમેં આતા હૈ ઉસી પ્રકાર) 17:10 Play (प्रश्नका सारांश) आत्मा सर्व प्रदेशसे जाननेमें आता है कि या कोई स्थान विशेषसे जाननेमें आता है? (जैसे रंग आंखके प्रदेशोंसे जाननेमें आता है उसी प्रकार) 17:10 Play
શરીર ઔર વિકલ્પસે ભેદજ્ઞાન કરકે આત્માકો પહિચાનના ચાહિયે? 21:30 Play शरीर और विकल्पसे भेदज्ञान करके आत्माको पहिचानना चाहिये? 21:30 Play
मुमुक्षुः- आप जो अस्तित्वका ग्रहण कहते हो कि निज अस्तित्वका ग्रहण करना।और त्रिकाल ज्ञायककी दृष्टि करनी, दोनों एक ही बात है?
समाधानः- दोनों एक ही बात है। एक ज्ञायकमें त्रिकाल आ गया। वर्तमानजिसका अस्तित्व ज्ञायकरूप है, वह उसका त्रिकाल अस्तित्व है। वर्तमान जो सतरूप अखण्ड ज्ञायक है वह तो त्रिकाल अखण्ड ज्ञायक ही है।
मुमुक्षुः- .. उसका कोई सरल उपाय?
समाधानः- वह दृष्टि तो स्वयं अंतरमें-से जागृत हो तो हो। दृष्टि मात्र विकल्प वह तो भावना करे, लगन लगाये। अंतर-से जिसको लगी हो उसकी दृष्टि अंतरमें जाती है। जिसे अंतरमें लगन लगे, बाह्य दृष्टि और बाह्य तन्मयतासे जो थक गया है, जिसे अंतरमें कहीं चैन नहीं पडता। बाह्य दृष्टि और बाह्य उपयोग, बाहरकी आकुलतासे जिसको थकान लगी है और अंतरमें कुछ है, अंतरके अस्तित्वकी जिसे महिमा लगी है। अंतरमें ही सब है, ऐसी जिसको अंतरसे महिमा लगे तो उसकी दृष्टि बदल जाती है। तो वह स्वयं चैतन्यको ग्रहण कर लेता है। जिसे लगे वह ग्रहण किये बिना नहीं रहता। नहीं तो वह ऊपर-ऊपर से विचार करता रहे। बाकी दृष्टि पलटनेके लिये अंतरमें- से लगन लगे तो दृष्टि पलटती है।
मुमुक्षुः- ... तो ज्ञात होगा, ऐसा कह सकते हैं?
समाधानः- परको जानना बन्द करना ऐसा नहीं। एक क्षण विभावमें-से तन्यता छोडकर उसका भेदज्ञान करे तो स्व ज्ञात होगा। जानने ओर नहीं। पर-ओर जो उपयोग (तन्मय हो रहा है, उसे छोडकर), राग और विकल्पकी एकत्वबुद्धि तोडकर स्वमें जा तो स्वका वेदन होगा।
जाननेका तो उपयोग पलटता है। अन्दर जो जाननेका स्वभाव है, उसका नाशनहीं होता। जाननेका स्वभाव है उसका नाश नहीं होता। रागके साथ एकत्वबुद्धि है, उसे क्षणभरके लिये तोड दे। क्षणबर यानी अन्दरमें-से ऐसी प्रज्ञाछैनी द्वारा उसका ऐसा भेदज्ञान कर तो स्वकी स्वानुभूति होगी। एक क्षणभरके लिये। स्वभाव और विभावमें ऐसी तीक्ष्ण प्रज्ञाछैनी द्वारा स्वयं स्वसन्मुख हो जाय, तो स्वका वेदन होगा। उसका