राग तोडनेका है, उसकी एकत्वबुद्धि तोडनी है। जानना तो, अनेक जातके विकल्प आ गये तो भी अन्दर जो प्रत्यभिज्ञान जाननेका स्वभाव है उसका नाश नहीं होता। वह नाश नहीं होता। राग छूट जाता है।
मुमुक्षुः- जो परिभ्रमण हो रहा है वह एकत्वबुद्धिके कारण है।
समाधानः- एकत्वबुद्धिके कारण है, जाननेके कारण नहीं। एकत्वबुद्धिके कारण परिभ्रमण खडा है। केवलज्ञानी लोकालोक जानते हैं। जानना रागका कारण नहीं होता। वीतराग दशा, भेदज्ञान करे, एकत्वबुद्धि तोड दे। वह तो उपयोग वहाँ जाता है, रागके साथ एकत्व (है), इसलिये तू अन्यको जाननेके बजाय स्वको जान, ऐसा कहनेमें आता है। परन्तु जाननेका स्वभाव तोड दे, ऐसा नहीं कहना है। उसमें रागमिश्रित उपयोग है, उस उपयोगको बदल दे। ऐसा। ज्ञेय-ओरकी एकत्वबुद्धिको तोड दे। तेरी जाननेकी दिशा स्वसन्मुख कर दे। ऐसा कहना है। इसलिये राग टूट जाता है। तेरे उपयोगकी दिशा बदल दे, ऐसा कहना है।
मुमुक्षुः- जहाँ स्वको अपनेरूप जाना तो उसका समस्त ज्ञान सम्यकज्ञान नाम प्राप्त करता है।
समाधानः- हाँ, सम्यकज्ञान नाम प्राप्त करता है।
मुमुक्षुः- और उसके पहले जबतक परमें एकत्वबुद्धि है, तबतक मिथ्याज्ञान नाम प्राप्त होता है।
समाधानः- मिथ्याज्ञान नाम प्राप्त होता है। दिशा पूरी पलट गयी न। पूरी दिशा, पर सन्मुख दिशा (थी, वह) स्व सन्मुख जाननेकी दिशा हो गयी, उसका समस्त ज्ञान सम्यक रूप हो गया। उसके समस्त अभिप्राय पलट गये। (पहले) जानता था उसमें अभिप्रायमें भूल होती थी। जहाँ सम्यक भेदज्ञान हुआ तो ज्ञानकी दिशा पलट गयी। उसका पूरा ज्ञान सम्यक रूप परिणमित हो गया। भेदज्ञान रूप ज्ञान परिणमित हुआ इसलिये उसकी जाननेमें कहीं भूल नहीं होती। उसके पहले एकत्वबुद्धि थी, दिशा अलग थी इसलिये जाननेमें भूल होती थी।
समाधानः- .. द्रव्यके षटकारक और एक द्रव्य और दूसरे द्रव्यके षटकारक वह षटकारक एवं पर्यायके षटकारक, वह षटकारक एकसमान नहीं होते। वह षटकारकमें फर्क होता है। पर्याय तो क्षणिक है, द्रव्य तो त्रिकाल है। पर्याय स्वतंत्र होने पर भी पर्यायके षटकारक और द्रव्यके षटकारकमें अंतर है। पर्यायको द्रव्यका आश्रय तो रहता है। स्वतंत्र होने पर भी उस पर्यायको द्रव्यका आश्रय होता है। जितना द्रव्य स्वतंत्र, उतनी ही पर्याय स्वतंत्र कहनेमें आये तो वह पर्याय नहीं रहती, वह द्रव्य हो जाय। इसलिये पर्यायको द्रव्यका आश्रय है। इसलिये उसके षटकारक और द्रव्यके षटकारकमें