Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 1511 of 1906

 

अमृत वाणी (भाग-५)

२७८ भिन्न (है, उसका) भेदज्ञान कैसे हो? और बाहरमें शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र होते हैं। श्रुतका चिंतवन, देव-गुरुकी महिमा। मुनिओंको भी श्रुतका चिंतवन होश्रता है। छठवें- सातवें गुणस्थानमें झुलते हो तो भी। स्वानुभूतिमें अंतरमें जाते हैं और अंतर्मुहूर्त बाहर आते हैं तो श्रुतके विचार होते हैं। बीचमें शास्त्रका अभ्यास होता है। लेकिन आत्माके लक्ष्य-से, आत्मा कैसे पहचानमें आये? आत्मा भिन्न है, उसका भेदज्ञान कैसे हो? यह लक्ष्य होना चाहिये।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन तो नहीं हुआ है, परन्तु दृढ निश्चय किया है कि इस भवमें सम्यग्दर्शन प्राप्त करना ही है। दूसरे कोई कार्यमें रस नहीं आता। परन्तु इस भवमें यदि प्राप्त न कर सके तो यह रस, रुचि दूसरे भवमें काम (आता है)? भविष्यमें काम आता है कि नहीं?

समाधानः- अपूर्व रुचि। अंतर-से ऐसी प्रगट हुयी हो तो वह रुचि अपने साथ आती है। वह आती है। उसके संस्कार जो गहरे पडे हों, तो जहाँ जाय वह अन्दरमें- से स्फुरते हैं। आत्मा भिन्न है, वह भिन्न कैसे प्राप्त हो? ऐसी गहरी रुचि और संस्कार हो, भले दृढ निश्चय हो, परन्तु पहुँचा नहीं हो तो वह संस्कार उसे प्रगट होते हैं। यथार्थ हो तो प्रगट होते हैं।

अनन्त कालमें देव-गुरु-शास्त्रका उपदेश मिला। गुरुका उपदेश मिला, देवका मिला। अंतरमें ग्रहण हो गया कि ये कुछ अपूर्व कहना चाहते हैं। लेकिन अभी सम्यग्दर्शन नहीं हुआ हो तो उसे दूसरे भवमें भी होता है।

मुमुक्षुः- सच्ची श्रद्धा अन्दरमें दृढ की होगी तो वह भविष्यमें काम आती है?

समाधानः- हाँ, काम आती है।

मुमुक्षुः- ... ऐसा योग मिला, फिर भी अभी तक नहीं हुआ है, इसलिये...?

समाधानः- नहीं हुआ है तो अंतरमें स्वयं विचार कर लेना कि पहलेकी जो रुचि अनन्त कालमें की, परन्तु गहराई-से स्वयंने रुचि नहीं की है। सब ऊपर-ऊपरसे ग्रहण किया है। सब स्थूल-स्थूल (किया)। यथार्थ प्रकारसे देव और गुरुको स्वयंको पहचाना नहीं है। और अंतरमें जो आत्माका स्वरूप कहना चाहते हैं, उसकी अपूर्वता नहीं आयी है। इसलिये अनन्त कालमें बहुत किया है, लेकिन हुआ नहीं है। अब, स्वयंको अंतरमें कैसी रुचि है, वह स्वयं पहचान सकता है। यदि अन्दरमें गहरी रुचि हो तो भविष्यमें वह प्रगट हुए बिना रहती ही नहीं।

अन्दरमें ऐसी गहरी रुचि हो कि स्वयंको ऐसी खटक रहती है कि विभावमें कहीं चैन नहीं पडती। ये विभाव मुझे चाहिये ही नहीं। मुझे स्वभाव चाहिये। स्वभावकी महिमा अंतरमें-से रहा करे, ऐसी गहरी महिमा रहा करे तो वह साथमें आये बिना नहीं रहता।