१५२ गया कि मैं सिंह हूँ, मैं बकरी हूँ, उसके जैसा हो गया है। सिंह भूल गया कि मैं कौन? ये बकरे अलग है और मेरा लक्षण अलग है, यह भूल गया। ऐसे स्वयं भूल गया है। उसमें सिंहको कोई कहनेवाला मिले कि अरे..! इस बकरेके झुंडमें तू सिंह है। लक्षणसे पहचान करवाये।
इसप्रकार गुरुदेव लक्षणसे पहचान करवाते हैैं कि अरे..! तू तो आत्मा जानने वाला है, ये शरीर तू नहीं है। तू उससे भिन्न है, तू देख। अन्दर जानने वाला आत्मा है। ऐसे गुरुदेव मार्गकी पहचान करवाते हैं, उस मार्गको बारंबार दृढता करके ग्रहण करना चाहिये। उसके लिये सब छोड दे, ऐसा कुछ नहीं होता, अन्दरकी रुचि लगनी चाहिये। उसे अंतरमें रस कम हो जाये। रस कम हो जाये। बाहर सब रहता है, बाहर सब करता हो, लेकिन अन्दर उसे रस छूट जाता है।
मुमुक्षुः- अन्दरकी रुचि कब हो? जब दुःख हो तब होती है?
समाधानः- दुःख हो ऐसा नहीं, परन्तु अन्दर नक्की हो कि गुरुदेव कहते हैं वह अलग है, आत्मा भिन्न है। भले सच्ची प्रतीत बादमें (होती है), परन्तु अन्दरसे ऐसा लगना चाहिये कि इस आत्मामें ही सब है, बाहरमें कहीं भी नहीं है। सुख बाहर कहीं नहीं है। जहाँ देखो वहाँ, खाते-पीते, सोते-जागते, घुमनेमें-फिरनेमें कहीं भी सुख नहीं है, ऐसा उसे नक्की होना चाहिये। सुख मेरे आत्मामें है। अन्दर आत्मा कोई अनुपम और अपूर्व है, ऐसा उसे नक्की हो कि आत्मा कोई अलग है, तो उसे उस ओर रुचि लगे।
लेकिन यह कौन बताये? गुरुदेव बताते हैं। मार्ग बताया है। सब लोग कहाँ पडे थे। क्रिया करे, थोडा बाहरसे करे कि थोडा ये कर लिया, उपवास कर लिया, ये कर लिया तो धर्म हो गया। धर्म उसमें नहीं है। धर्म अन्दर आत्मामें है। वह तो शुभभाव करे। उपवास करे तो शुभभावसे पुण्य बन्धता है, देवलोक होता है, उससे भवका अभाव नहीं होता। ऐसे देवके भव जीवने अनन्त कालमें बहुत किये, परन्तु मोक्ष नहीं हुआ। भवका अभाव तो आत्माको पहचाने तो होता है। लेकिन जबतक वह नहीं होता तबतक बीचमें शुभभाव आते हैं। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि (होते हैं)। अंतरमेंसे बाहरका सब रस छूट जाये।
.. जैसे होना होगा वैसा होगा, परन्तु उसमें पुरुषार्थ साथमें होता है। स्वयंको तो ऐसा ही विचार करना है कि मैं पुरुषार्थ करुँ। पुरुषार्थका क्रमबद्धके साथ सम्बन्ध है। ऐसा माने कि जैसा होना होगा वैसा होगा। तो-तो फिर जो परिणाम आये उसमें जुड जाये। ये अशुभभाव, एकत्वबुद्धिसे जड जाता है, ऐसा जो करता है कि जैसे होना होगा वैसा होगा, तो फिर खानेमें-पीनेमें हर जगह एकत्वबुद्धि रस लेने वाला,