०२७
उसे शरीर सो मैं और मैं सो शरीर, ऐसी बुद्धि है, पुरुषार्थकी ओर जिसकी दृष्टि ही नहीं है, तो उसका क्रमबद्ध एैसा होता है कि उसे भवका अभाव नहीं होता। परन्तु जिसके हृदयमें ऐसा हो कि मैं पुरुषार्थ करुँ, मैं मेरे भावको बदलूँ। मुझे एक शुद्धात्मा चाहिये, मुझे और कुछ नहीं चाहिये। तो उसे उस जातका क्रमबद्ध होता है कि उसे मुक्तिकी ओरका होता है।
क्रमबद्धका पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है। जिसकी रुचि आत्माकी ओर जाये उसका क्रमबद्ध मोक्षकी ओर होता है। परन्तु जिसकी रुचि संसारकी ओर हो, उसे क्रमबद्ध संसारकी ओर होता है। स्वयंको तो ऐसा ही विचार करना है कि मैं पुरुषार्थ करुं। क्रमबद्ध-कुदरतमें जो होनेवाला है वह होगा, परन्तु स्वयंको ऐसा विचार करना कि मुझे-मैं पुरुषार्थ करुँ। मेरे आत्माके परिणाम बदलकर मैं ज्ञायकको पहचानुँ। स्वयंको ऐसा विचार करना चाहिये।
यदि स्वयं ऐसा विचार करे कि सब क्रमबद्ध होगा तो फिर स्वयंको कुछ करना नहीं रहता है। तो जैसे आये वैसे परिणाम चलते रहे, (क्योंकि) स्वयंको कुछ करना ही नहीं है। पुरुषार्थके साथ क्रमबद्धका सम्बन्ध है। स्वयंको तो रुचि पलटकर पुरुषार्थ करना। क्रमबद्ध इसप्रकार है। क्रमबद्धका पुरुषार्थके साथ सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- क्रमबद्ध ऐसा कि कहीं जुडना नहीं, देखते रहना, आये उसे रोकना नहीं।
समाधानः- जुडना नहीं वह भी पुरुषार्थ हुआ न? जुडना नहीं वह अन्दर उस जातका पुरुषार्थ हुआ। मुझे जुडना नहीं है, ऐसा भाव आया वह पुरुषार्थ ही है कि मुझे नहीं जुडना है। जुडना नहीं है, मुझे भेदज्ञान करना है, ज्ञायकको पहचानना है। तो वह पुरुषार्थ हुआ, वह तो पुरुषार्थ हुआ।
मुमुक्षुः- यानी अच्छा किया न?
समाधानः- हाँ, वह अच्छा है, लेकिन वह पुरुषार्थ हुआ। उसके साथ क्रमबद्ध (है), पुरुषार्थके साथ क्रमबद्ध हुआ उसके साथ क्रमबद्ध अच्छा होता है। जो ऐसा कहे कि मुझे जुडना नहीं है, ऐसा नहीं रखे और कहे कि क्या करुँ? जुड जाता हूँ। क्रमबद्ध ऐसा था। ऐसा करे उसका क्रमबद्ध अच्छा नहीं होता। जुड जाता हूँ, क्या करुँ? कर्मका उदय है। ऐसा माने तो उसका क्रमबद्ध अच्छा नहीं होता। ऐसा कहे कि मुझे नहीं जुडना है, मुझे आत्माको पहचानना है, तो उसका क्रमबद्ध अच्छा होता है। आकूलता नहीं करनी, शांतिसे पुरुषार्थ करे। लेकिन पुरुषार्थकी ओर जिसकी दृष्टि हो उसका ही क्रमबद्ध अच्छा होता है।
मुमुक्षुः- क्रमबद्धमें पुरुषार्थ करना..