Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi).

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अमृत वाणी (भाग-२)

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समाधानः- क्रमबद्धमें पुरुषार्थ करे, लेकिन स्वयंको तो ऐसा होता है न कि मैं पुरुषार्थ करुँ, मेरे भाव बदलूँ। भले क्रमबद्धमें। परन्तु स्वयंको तो ऐसा विचार आना चाहिये कि मैं पुरुषार्थ करुँ। क्रमबद्धमें पुरुषार्थ आयेगा, ऐसा विचार करे तो भी पुरुषार्थ नहीं होता। क्रमबद्धमें पुरुषार्थ होगा, ऐसा माने तो उसे पुरुषार्थ नहीं होता। मैं पलटुँ, परिणाम मेरी ओर आये, मुझे ये नहीं चाहिये। स्वयं यदि ऐसा विचार करे कि मैं पलटुँ, उसे ही क्रमबद्धमें पुरुषार्थ आता है, दूसरेको नहीं आता। स्वयंको तो ऐसा ही लेना। उसमें तो कुदरतकी पर्यायें स्वयं परिणमति है। स्वयं परिणमे उसे तुझे क्यों देखने जाना है? क्रमबद्ध अपने आप पलटता है। सभी पर्यायें कुदरती पलटती है, उसे तुझे नहीं देखना है। तू तेरे पुरुषार्थकी ओर नजर कर।

ऐसा विचार करे कि क्रमबद्धमें पुरुषार्थ होगा तो होगा। तो उसे पुरुषार्थ नहीं चलता। ऐसा विचार करे तो भी। ऐसा विचार करे तो उसका पुरुषार्थ मन्द पड जाये। तो पुरुषार्थ नहीं चलता। स्वयंको तो ऐसे ही लेना है कि मैं पुरुषार्थ करुँ। तो उसका क्रमबद्ध मोक्षकी ओर आये। मुझे एक ज्ञायक चाहिये, और कुछ नहीं चाहिये। मुझे संकल्प-विकल्प आकूलतामय है, वह नहीं चाहिये। मुझे एक आत्मा अनुपम है वही चाहिये। ऐसी भावना करे। मुझे पुरुषार्थ करके मुझे ही पलटना है। ऐसे विचार आये तो उसका क्रमबद्ध पलटता है। स्वयंको ऐसे ही विचार आने चाहिये।

मुमुक्षुः- नहीं तो स्वयंको स्वंयके आधीन कोई परिणाम ही नहीं रहे और दूसरा क्रमबद्ध..

समाधानः- हाँ, स्वयं स्वाधीन नहीं रहा। कोई कर देगा ऐसा हो गया। क्रमबद्ध मुझे पुरुषार्थ कर देगा, तुझे क्या करना है? क्रमबद्ध पुरुषार्थ करेगा तो तुझे पुरुषार्थ होगा ही नहीं। तेरा पुरुषार्थ मन्द ही हो जायेगा। ऐसा विचार करना। आत्मार्थीओंको, जिसे आत्माकी लगी है, वह ऐसे विचारोंमें रुकता नहीं। बीचमें उसे वह बचावका पहलू आ जाता है। जो आत्मार्थी हैं, वह ऐसा मानते हैं कि मेरी क्षति है। मेरी क्षतिके कारण मैं रुका है, मेरी मन्दता है। मेरी मन्दता है, मेरी रुचिकी कमी है, मेरे पुरुषार्थकी कमी है, तो ही वह आगे बढता है।

... कारण वह है। परद्रव्यका स्वयं कर्ता नहीं होता। परद्रव्यमें जो होना होगा वह होता है। वहाँ क्रमबद्धमें खडा रहे। अपने पुरुषार्थमें यदि क्रमबद्ध लेगा तो पुरुषार्थ मन्द हो जायेगा। बाहरके उदय, पुण्य-पापके उदय, बाहरके फेरफार आदि सब क्रमबद्ध (है)। अंतरमें क्रमबद्ध है, परन्तु वह क्रमबद्ध, स्वयं जिज्ञासु आत्मार्थी हितकी ओर जाने वाला अपने पुरुषार्थकी ओर ही देखने वाला होता है। और उस पुरुषार्थके साथ क्रमबद्धका सम्बन्ध है। अकेला क्रमबद्ध मोक्षकी ओर जो जाता है, वह अकेला नहीं