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है। जिसे ज्ञायककी धारा प्रगट हो, उसे विरक्ति आ ही जाती है। वह भिन्न पड जाता है। अन्दर स्वरूप रमणता आंशिक प्रगट होती है। अनन्तानुबन्धी कषाय छूटकर स्वरूप रमणता (प्रगट होती है)। उस ज्ञानका फल विरति है। ज्ञायककी धारा प्रगट हो उसमें विभाव अमुक अंशमें छूट ही जाते हैं। वह ज्ञानका फल विरति है।
मुमुक्षुको यह लेना कि उसे जिज्ञासा प्रगट हुयी तो वहाँ विचार, वांचन करे उसमें उसे अमुक वैराग्य आदि तो साथमें होता ही है। यदि नहीं है तो उतनी रुचि ही नहीं है। आत्माकी ओर रुचि जाय और विभावका रस न छूटे तो उसे तत्त्वकी रुचि ही नहीं है। विभावका रस तो छूटना चाहिये। यथार्थ विरति तो ज्ञायककी धारा प्रगट हो, वह यथार्थ विरति है। लेकिन उसे अभ्यासमें भी, जिसे आत्माकी रुचि जागृत हो, उसे विभावका रस छूटना ही चाहिये। तत्त्व विचार करे, वांचन करे परन्तु अन्दरसे उतना वैराग्य नहीं आता है तो यथार्थ रुचि ही नहीं है। रुचिके साथ थोडी विरक्ति तो उसे अंतर-से रस छूट जाना चाहिये।
मुमुक्षुः- सच्ची बात है, वह साथ-साथ प्रगट होना ही चाहिये।
समाधानः- साथ-साथ हो तो ही उसकी रुचि है।
मुमुक्षुः- अन्यथा शुष्क ज्ञान हो जाय।
समाधानः- अन्यथा तो रुखा ज्ञान है।
मुमुक्षुः- श्रीमदजीने तो बहुत लिखा है। एक जगह तो लिखा है, हे आर्य! द्रव्यानुयोगका फल सर्व भाव-से विराम पामनेरूप संयम है। यह कभी मत भूलना। द्रव्यानुयोगका फल..
समाधानः- द्रव्यानुयोगका फल संयम आता है। जहाँ द्रव्यानुयोग यथार्थ परिणमित हो गया, उसे संयम, क्रम-क्रमसे संयम आ ही जाता है। और उस वक्त अमुक अंशमें तो संयम आ ही जाता है। द्रव्यानुयोग, जिसे अंतरमें स्वानुभूति प्रगट हुयी, उसे आंशिक संयम तो आ गया है। स्वरूप रमणता प्रगट हो गयी, स्वरूपाचरण चारित्र हो गया है। मुमुक्षु दशामें भी उसे अमुक प्रकार-से रुचि छूट जाती है। बाहर-से वैराग्य आ जाता है।
मुमुक्षुः- .. करोडों कोहिनूर हीरासे वधाये तो भी कम है। सचमूच कहता हूँ। यह बात कोई गजब बात है, कहीं भी समझने मिले ऐसा नहीं है। यहाँ-से तो करीब- करीब लोग ... पर्यायमें जायेंगे। क्योंकि यह काल ही ऐसा विचित्र है। आत्माकी लगन लगाकर भी प्राप्त न करें तो.... बहुत गजब बात है।
समाधानः- स्वयंको उस ओर चलना है। मुमुक्षुः- गुरुदेवने बात कही कि हमारी ओर देखने-से भी राग होगा।