२८८ चैतन्यको ग्रहण कर। चैतन्यका अस्तित्व (ग्रहण कर) तो वह भिन्न पड जायेंगे।
मुमुक्षुः- दृष्टिका जोर आने-से वह भिन्न पड जाता है कि उसे भिन्न करनेकी प्रक्रिया करनी पडे?
समाधानः- चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण हो इसलिये वह भिन्न पड जाते हैं। एकका ग्रहण हो इसलिये वह भिन्न पड जाते हैं। उसे छोडनेकी क्रिया नहीं करनी पडती। चैतन्यको ग्रहण करनेका पुरुषार्थ करे। चैतन्य ग्रहण हो-चैतन्य द्रव्य, इसलिये वह भिन्न पडते हैं। उसका भेदज्ञान होता है।
मुमुक्षुः- ज्ञानियोंको तो अनन्त करुणा होती है तो हम जैसे पामर जीवोंको भी... इतने प्रयत्नमें कहीं कचास लगती है।
समाधानः- अपने पुरुषार्थकी क्षति है। कोई किसीको कर नहीं देता। गुरुदेव कहते थे, किसीका कोई कर नहीं सकता। तीर्थंकर भगवान या गुरुदेव, कोई कर नहीं सकता। मार्ग बताते हैं, करनेका स्वयंको है। गुरुदेव करुणा कर-करके, चारों ओर-से स्पष्ट कर- करके मार्ग बताया है। करना स्वयंको है।
मुमुक्षुः- ज्ञानीकी निश्रामें रहे जीवोंको ज्ञानी, मुमुक्षुके दोष भी बताये। हमारा क्या दोष हो सकता है? अंतिम प्रज्ञाछैनी अन्दरमें पटक नहीं सकते हैं।
समाधानः- अपनी क्षति (है)। स्वयं दूसरेमें रुककर पुरुषार्थ नहीं करता है। कहीं- कहीं रुक ही जाता है। बाहरमें प्रमादके कारण अथवा बाह्य रुचिके कारण, प्रमादके कारण, अनेक कारणोंसे बाहर रुका रहता है। बाह्य प्रवृत्तिओंमें, बाहरमें उसे रुचि और रस लगता है। चैतन्य, अकेला चैतन्य, उसकी अंतरमें-से उसे जितनी रुचि और लगन लगनी चाहिये उतनी नहीं लगती है। इसलिये कहीं भी रुका रहता है।
मुमुक्षुः- आपको देखते हैं तब बहुत आनन्द-आनन्द होता है। लेकिन हमारा आनन्द प्रगट नहीं होगा तो यह आनन्द तो कहाँ चला जायगा।
समाधानः- करना स्वयंको है। स्वयंको ही प्रगट करना है। स्वयं करे तो ही छूटकारा है। आचार्यदेव कहते हैं, उग्र अभ्यास कर तो छः महिनेमें तुझे प्रगट होगा। लेकिन वह उग्रपने करता नहीं है, मन्द-मन्द, मन्द-मन्द करता है इसलिये उसे समय लगता है। पुरुषार्थ कर-करके थोडा-थोडा करके छोड देता है। अंतरमें-से उग्र नहीं करता है।
मुमुक्षुः- ज्ञानका फल विरति है। जो पढने-से, जो विचार करने-से, जो समझने- से आत्मा विभाव-से, विभावके काया-से रहित नहीं हुआ वह पढना-विचारना मिथ्या है। मुमुक्षुकी भूमिकामें भी थोडा इस प्रकार-से रहित होना तो जरूरी है न? उस जातका...
समाधानः- यथार्थ ज्ञान जिसे हो, ज्ञायककी धारा प्रगट हो उसका फल विरति