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हो? उसकी परिणति कैसे प्रगट हो, वही पुरुषार्थ करने जैसा है। बाकी शान्ति रखनी। संसार तो ऐसा ही है, संसारका स्वरूप (ऐसा ही है)। जीवने बहुत जन्म-मरण किये हैं। कितने? अनन्त-अनन्त किये हैं। अनन्त (भव) देवके, अनन्त नर्कके, तिर्यंचके, मनुष्यके (किये)। इसमें इस भवमें-मनुष्य भवमें गुरुदेव मिले, वह महाभाग्यकी बात है कि गुरुदेवने यह मार्ग बताया। वह ग्रहण करने जैसा है, वही शान्तिरूप है। जीवों कहाँ पडे थे बाह्य दृष्टिमें, क्रियाओंमें, उसमें-से गुरुदेवने अंतर दृष्टि करनेको कहा। ज्ञायक आत्माको पहचाननेको कहा।
भेदज्ञान (करे)। यह शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न। अंतरमें भेदज्ञान करके विभाव आत्माका स्वभाव नहीं है, उससे भिन्न-न्यारा आत्माको पहचानना, वह पुरुषार्थ कैसे हो, वह करने जैसा है। वही सुखका उपाय और शान्तिका उपाय है। शुभ भावनामें देव-गुरु- शास्त्र (और) अंतरमें शुद्धात्माकी पहचान कैसे हो? सच्चा वही है।
मुमुक्षुः- मन्द कषायरूप समाधान तो रहे, परन्तु यथार्थ इस लक्ष्यपूर्वकका समाधान हो तो उसीको समाधान कहें। ऊपर-ऊपर-से तो सब करते हैं कि ऐसा होनेवाला होगा क्रमबद्धमें उस अनुसार हो रहा है। परन्तु लक्ष्यपूर्वकका यथार्थ समाधान कैसे करना?
समाधानः- उसका अभ्यास करना, लक्ष्यपूर्वकके समाधान (के लिये)। ज्ञायक आत्मामें-से कैसे शान्ति प्रगट हो? मेरा आत्मा भिन्न, इन सब विकल्पों-से भी भिन्न आत्मा स्वयं अकेला ही है। उसे कोई परपदार्थके साथ सम्बन्ध नहीं है। इस शरीरके द्रव्य-गुण-पर्यायसे आत्मा भिन्न है। किसीके साथ सम्बन्ध नहीं है। अंतरमें-से इस प्रकार भिन्नता करके अंतरमें-से शान्ति आवे, उसका अभ्यास करना।
सब चीज अनुभवमें, परिचयमें आ गयी है। एक आत्माका स्वभाव परिचयमें नहीं आया है, अनुभवमें नहीं आया है। वह कैसे हो? वह करने जैसा है। इतना समाधान भी गुरुदेवके प्रताप-से सब लोग करना सीखे हैं। ज्ञायकके लक्ष्यसे हो, ज्ञायककी परिणति प्रगट होकर हो, वह अलग बात है, परन्तु इस प्रकारसे समाधान (होना भी) गुरुदेवके प्रताप-से सीखे हैं।
मुमुक्षुः- बापू बहुत कहते थे कि गुरुदेवके प्रताप-से ऐसा सत्य धर्म बाहर आया है। इतना सत्य धर्म बाहर आया है कि गुरुदेवके अलावा किसीने अभी तक बाहरमें प्रगटरूपसे किसीने सुना नहीं है।
समाधानः- .. उसकी यदि रुचि लगे, उसे ग्रहण करे तो भिन्न पड जाते हैं। स्वयं ही एकत्वबुद्धि करके उसे ग्रहण करके खडा है। फिर कहता है, वह भिन्न नहीं पडते हैं। स्वयंने ही ग्रहण किया है। स्वयं ही छोडे तो छूटे। उसका भेदज्ञान करके चैतन्यको ग्रहण करे तो वह भिन्न पडते हैं। उसने स्वयंने ग्रहण किया है। तू उसे छोडकर