२८६ हूँ, पर्याय अपेक्षासे अशुद्ध, मात्र ऐसा करता रहे तो वह तो मात्र उसे विचारका अनेकान्त हुआ। विचारमें अनेकान्तका ऐसा विचार करता रहे कि द्रव्य अपेक्षासे शुद्ध हूँ, पर्याय अपेक्षासे अशुद्ध हूँ। ऐसा विचार करता रहे तो विचार मात्र अनेकान्त रहता है।
परन्तु वह सम्यक अनेकान्त कब होता है? कि दृष्टि सम्यक हो तो ही सम्यक अनेकान्त (होता है)। परिणतिरूप अनेकान्त तब होता है कि दृष्टि सम्यक हो तो परिणतिरूप अनेकान्त होता है। नहीं तो विचार विचाररूप, अनेकान्तका विचार करता रहे कि द्रव्यसे ऐसा, पर्यायसे ऐसा, वह विचारमें आया, निर्णय किया लेकिन दृष्टि द्रव्य पर स्थापित नहीं होती है तो उसका अनेकान्त विचारमात्र है।
मुमुक्षुः- अनेकान्तका निर्णय भी सच्चा निर्णय नहीं है।
समाधानः- हाँ, मात्र विचार करता है। परिणतिरूप नहीं है। दृष्टि द्रव्य पर और पर्यायका ख्याल रहता है, ऐसी जहाँ परिणति होती है, तो उसके साथ दृष्टि और प्रमाण दोनों साथमें परिणमे तो उसका अनेकान्त ज्ञान (बराबर है), अनेकान्तके साथ दृष्टि सम्यक एकान्त (होती है), वह दोनों साथमें आ जाते हैं। एकान्त (और) अनेकान्त। अनेकान्तका मात्र विचार करता रहे वह तो मात्र विचार है। निर्णय करनेरूप है, अभ्यासरूप है।
मुमुक्षुः- वह नहीं।
समाधानः- वह नहीं। परिणति हो जानी चाहिये। द्रव्य पर दृष्टि जाय और पर्यायका ख्याल रहे, अन्दर स्वयंकी पुरुषार्थकी डोर चालू हो जाय तो अनेकान्तने अनेकान्तरूप कार्य किया है। उसमें तो अनादिकी एकत्वबुद्धि है, उसमें-से स्वयं भेदज्ञान करके स्वभाव- ओर जाय और पर्यायका ख्याल रखे तो उसे अनेकान्तकी परिणति प्रगट हुयी है।
समाधानः- ... जन्म-मरण, जन्म-मरण संसारमें चलते रहते हैं। आत्मा शाश्वत है। गुरुदेवने बहुत सुनाया है। ग्रहण करने जैसा वह एक ही है। शाश्वत आत्माका शरण, वही सच्चा शरण है। जन्म-मरणमें अनन्त कालमें स्वयंने बहुतोंको छोडा और स्वयंको छोडकर बहुत चले जाते हैं। एक शाश्वत आत्मा ही सर्वोत्कृष्ट है और वही सुखरूप है। उसीका शरण ग्रहण करने जैसा है। बाकी तो संसारमें ऐसा सब चलता ही रहता है।
अनन्त कालमें जीवको सब प्राप्त हो चूका है। गुरुदेवने जो मार्ग बताया-सम्यग्दर्शन- स्वानुभूतिका मार्ग-जो है वह प्राप्त नहीं हुआ है। बाकी कुछ जीवको अपूर्व नहीं है, बाकी सब प्राप्त हो चूका है। आचार्यदेव कहते हैं न, एक सम्यग्दर्शन और जिनवर स्वामी नहीं मिले हैं। बाकी सब जीवको मिला है। जिनवर स्वामी मिले तो स्वयंने पहचाना नहीं है। इसलिये सम्यग्दर्शन कैसे प्राप्त हो और भवका अभाव कैसे हो, वह करने जैसा है।
भवका अभाव करने (हेतु) अंतरमें आत्मा क्या है? ज्ञायक आत्मा भिन्न कैसे