इसमें सदा प्रीति कर, रुचि कर, तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा। तुझे आश्चर्यकारी उत्तम सुख तेरे आत्मामें-से प्रगट होगा। आत्मामें रुचि कर, प्रीति कर और आत्मामें सुख प्रगट होगा। आत्मामें-से सुख प्रगट होगा। ज्ञानस्वरूप आत्मा, ज्ञायकस्वरूप आत्मामें प्रीति कर। आत्मामें सब कुछ भरा है, बाहरमें कुछ नहीं है। ज्ञानस्वरूप आत्मामें सब भरा है। वह संतुष्टरूप है। उसमें तुझे संतोष होगा। उसमें तुझ तृप्ति होगी। बाहर जानेकी इच्छा भी नहीं होगी। इसलिये तू तेरे आत्मामें अच्छा लगा। उसमें आनन्द भरा है।
मुमुक्षुः- अनेकान्त वस्तुके स्वरूपको दर्शाता है। उसमें द्रव्यका आश्रय आ जाता है?
समाधानः- अनेकान्त स्वरूपमें? हाँ, द्रव्यका आश्रय आ जाता है। अनेकान्त स्वरूप, जिसको यथार्थ अनेकान्त स्वरूप प्रगट होता है, अनेकान्तका निर्णय होता है तो उसको द्रव्य पर दृष्टि होती है। द्रव्यसे शुद्ध हूँ, ऐसे द्रव्य पर दृष्टि करे। ज्ञानमें सब अनेकान्त स्वरूप आ जाता है। तो ऐसी दृष्टि सम्यक होती है। अनेकान्त उसको ख्यालमें नहीं रहता तो दृष्टि सम्यक नहीं होती है। ज्ञान और दृष्टि दोनोंको सम्बन्ध है। दृष्टि एक द्रव्य पर करने-से कि मैं शुद्ध हूँ, तो ज्ञानमें ख्याल रहता है कि मैं अशुद्ध किस अपेक्षासे हूँ, शुद्ध किस अपेक्षासे है, ऐसा अनेकान्त स्वरूप उसके ज्ञानमें रहता ही है। उसको सम्यकज्ञान कहते हैं। दृष्टि भी सम्यक होती है।
दृष्टिमें भले मैं शुद्धात्मा हूँ, दृष्टिमें ऐसा आवे, परन्तु ज्ञानमें सब अनेकान्त स्वरूप आता है। दृष्टिके साथ अनेकान्त स्वरूप प्रगट हो जाता है। दृष्टिके साथ अनेकान्तका ज्ञान प्रगट हो जाता है। अनेकान्त स्वरूप तो है। उसका ज्ञान आ जाता है, दृष्टिके साथ। दृष्टि सम्यक होती है तो ज्ञान सम्यक हो जाता है। सब अपेक्षा ज्ञानमें आ जाती है। एक द्रव्य और पर्याय, ये दो अपेक्षामें सब अपेक्षा आ जाती है। अनेकान्त सब इसमें आ जाता है। द्रव्य-पर्यायका ज्ञान करनेसे। द्रव्य-गुण-पर्याय, उसमें सब अपेक्षा आ जाती है।
मुमुक्षुः- सम्यक एकान्त यानी द्रव्यका आश्रय सहजपने आ जाता है? ये थोडा विस्तारसे आप समझाईये। अनेकान्तके निर्णयमें दृष्टष्टि सम्यक हो जाती है, इसका स्पष्टीकरण थोडा विस्तारसे (समझानेकी कृपा करें)।
समाधानः- अनेकान्तका निर्णय करे तो दृष्टि सम्यक हो जाती है। दृष्टि, जहाँ उसे अनेकान्त ख्यालमें आया कि मैं शुद्धात्मा, द्रव्य अपेक्षासे शुद्ध हूँ और पर्याय अपेक्षासे अशुद्धता है। तो उसमें उसे दृष्टि द्रव्य पर (होती है कि) मैं चैतन्यका आश्रय ग्रहण करुँ, इस प्रकार चैतन्यका आश्रय लेने-से उसे दृष्टि सम्यक हो जाती है। और ख्याल रहता है कि पर्यायमें अशुद्धता है। पर्यायमें अशुद्धता है इसलिये उसे पुरुषार्थका ख्याल आदि सब साथ रहता है। नहीं तो अकेला ज्ञान (करे कि) मैं द्रव्य अपेक्षासे शुद्ध