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मुमुक्षुः- अनेकान्तका आश्रय कैसे करना?
समाधानः- अनेकान्तका आश्रय तो यथार्थ स्वरूप समझने-से होता है। पहले ज्ञानमें यथार्थ समझना चाहिये कि वस्तुका स्वरूप ऐसा है। यथार्थ विचार करके निर्णय करना चाहिये। भीतरमें जो स्वभाव है उसको लक्ष्यमें लेना चाहिये। मैं चैतन्य स्वरूप हूँ, ये मेरा ज्ञायक स्वभाव है। ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। विभाव तो है, पर्याय अपेक्षा-से है। द्रव्य अपेक्षासे नहीं। ऐसा यथार्थ वस्तु स्वरूपका निर्णय करना चाहिये। युक्ति, दलील यथार्थ रीतसे नक्की (करना चाहिये)। युक्ति, दलीलसे ऐसे नक्क्की करना कि जो वस्तु है, वैसे यथार्थ नक्की करना चाहिये।
जो गुरुदेवने कहा, जो भगवान कहते हैं, शास्त्रमेंं आता है उसके साथ मिलान करके, अपने विचार करके युक्तिके अवलम्बन-से नक्की करना चाहिये। पहले युक्तिके अवलम्बन-से आगमके आश्रय-से, देव-गुरु-शास्त्रकी जो प्रत्यक्ष वाणी सुने उसके आश्रय- अवलम्बन-से, युक्तिके अवलम्बन-से फिर उसका भेदज्ञान करके स्वानुभूति-से नक्की होता है। पहले युक्तिके आलम्बन-से नक्की होता है, विचार करने-से। देव-गुरु-शास्त्र और युक्तिका आलम्बन।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें आता है कि तुझे कहीं अच्छा न लगे तो आत्मामें रुचे।
समाधानः- कहीं न रुचे आत्मामें... तेरेको यदि बाहरमें अच्छा न लगे तो, कोई कहता है कि मुझे अच्छा नहीं लगता है। तो अच्छा आत्मामें है। तो आत्मामें दृष्टि कर। उसमें आनन्द पडा है। आत्मामें अच्छा है। आत्मामें ऐसा आनन्द और आत्माका स्वभाव, तेरा स्वभाव तुझे अच्छा लगेगा। बाहर तो आकुलता ही आकुलता है। जहाँ देखो वहाँ आकुलता ही है। बाहरमें कुछ शान्ति तो है नहीं। इसलिये तू आत्मा तरफ दृष्टि कर, आत्माको पहचान और आत्मामें लीनता कर। तो इसमें आनन्द भरा है। तो उसमें तुझे अच्छा लगेगा। अपना स्वरूप है इसलिये तुझे अनुकूल और तुझे आनन्द स्वरूप लगेगा, तू उसमें रुचि कर।
अपना स्वघर है, तेरा स्वभाव है, इसलिये वह आनन्द दायक है। उसमें तू जा। उसकी प्रतीत कर, ज्ञान कर, उसमें जा तो तुझे अच्छा लगेगा। शास्त्रमें आता है न?