२३१
(चलते हैं)। जो वस्तु स्वरूप है, जैसा भगवानने कहा ऐसा शास्त्रमें आता है। गुरुदेवने ऐसा मार्ग प्रगट किया, ऐसा कीधर भी नहीं है। ये अपूर्व स्वरूप है।
आत्मा कोई अचिंत्य अनेकान्तमयी मूर्ति, अनेकान्तमय मूर्ति आत्मा है। चारों ओर- से, सब पहलू-से देखो तो वह अनेकान्त स्वरूप है। जो अपेक्षा-से नित्य है, वही अपेक्षा-से अनित्य नहीं है। अनित्यकी अपेक्षा भिन्न और नित्यकी अपेक्षा जुदी है। द्रव्य अपेक्षा-से नित्य और पर्याय अपेक्षासे अनित्य, ऐसा है। ऐसा कोई कहता है, व्यवहार भी है, निश्चय भी है। व्यवहारकी अपेक्षा जुदी है और निश्चयकी अपेक्षा जुदी है। निश्चय वस्तु स्वरूप है और व्यवहार पर्याय अपेक्षा है। दोनों अपेक्षा भिन्न-भिन्न है। जैसा है ऐसा समझना चाहिये। तो मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। एकान्त शुद्ध मान ले तो कछ करना नहीं रहता है। (एकान्त) अशुद्ध मान ले तो अशुद्ध शुद्ध कैसे होवे? जो शुद्ध है द्रव्य अपेक्षासे, तो भी अशुद्ध सर्वथा नहीं है तो पुरुषार्थ किसका करना? इस अपेक्षासे पर्यायमें अशुद्धता है और द्रव्यमें शुद्धता है। द्रव्य पर दृष्टि करके पर्यायमें अशुद्धता है वह टूटती है। और श्रद्धा-ज्ञान करके जो स्वभावमें-से प्रगट होता है, विभावमें-से नहीं आता है। स्वभावकी दृष्टि करने-से पर्यायमें शुद्धता प्रगट होती है। ऐसे मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। अनेकान्त समझे बिना मुक्तिका मार्ग प्रगट नहीं होता। आत्मामें सुख नहीं होता है।