३०० भी काम करता है और दृष्टि भी निर्विकल्पपने अनुभूतिमेंं काम करती है। इसलिये प्रमाणज्ञान... उसे अनुभूति हुयी उसे शुद्धनय कहनेमें आता है। शुद्ध पर्याय प्रगट हुयी, शुद्धताका विषय ग्रहण किया, उस रूप परिणति है, इसलिये शुद्धनय कहनेमें आता है, शुद्ध अनुभूति है इसलिये। और उसे प्रमाण भी कहते हैं। केवलज्ञान प्रगट हुआ उसे प्रमाण भी कहनेमें आता है। केवलज्ञान पूर्ण हो गया। द्रव्य और पर्याय सब.. पर्याय पूर्ण हुयी, केवलज्ञानको प्रमाण कहनेमें आता है। और साथमें नय तो है ही, परन्तु निर्विकल्प.. अनुभूतिमें भी नय और प्रमाण साथमें होते हैं। सविकल्प धारामें जितनी परिणति प्रगट हुई, उसमें भी नय और प्रमाण साथ होते हैं।
मुमुक्षुः- माताजी! जब अनुभव हो तभी लागू पडे न, सच्चा प्रमाणज्ञान तो।
समाधानः- अनुभव हो तभी लागू पडता है। सविकल्प, उसका उपयोग बाहर है तो भी उसका ज्ञान काम करता है। जितनी द्रव्य पर दृष्टि है और ज्ञान साथमें, ये विभाव होते हैं वह मैं नहीं हूँ, मैं चैतन्यरूप हूँ। यह मैं नहीं हूँ, मैं चैतन्यरूप हूँ। ऐसी जातकी भेदज्ञानकी धारा चलती रहती है। सविकल्पतामें जितनी भूमिका चौथी, पाँचवी, छठ्ठी, सातवींको ज्ञान जानता है। जाननेका कार्य तो उसका साथ ही है। द्रव्यको भी जानता है, पर्यायको भी जानता है। जाननेका काम साथ ही है।
मुमुक्षुः- वह अनुभवके बादका प्रमाणज्ञान हुआ न?
समाधानः- हाँ, वह अनुभव होनेके बादका।
मुमुक्षुः- उसके पहले तो प्रमाणज्ञान नहीं कह सकते न?
समाधानः- सच्चा प्रमाणज्ञान (नहीं है)।
मुमुक्षुः- लागू नहीं पडता है न?
समाधानः- नहीं। अनुभवके बाद ही सचमूचमें नय और प्रमाण तब लागू पडता है। अनुभवके बाद भले सविकल्पमें हो या निर्विकल्पमें हो, अनुभवके बाद, तभी सच्चा प्रमाण और सच्ची नय लागू पडती है। उसके पहले तो सब निश्चय, विचार करता है। प्रमाणकी सच्ची परिणति या नयकी सच्ची परिणति उसके पहले प्रगट नहीं हुयी है। मात्र वह अभ्यास करता है।
.. नय और प्रमाण साथमें ही होते हैं। और निर्विकल्पमें तो विकल्प रहित निर्विकल्पपने है।
मुमुक्षुः- नय और प्रमाणसे रहित है, निर्विकल्प अनुभवके कालमें।
समाधानः- हाँ, निर्विकल्प अनुभवके कालमें। उसे अपेक्षा-से शास्त्रमें शुद्धनय कहो, शुद्ध अनुभूति कहो, उसे प्रमाण कहो। वह सब कहनेमें आता है। वह निर्विकल्परूप है। गुरुदवने महा उपकार किया है। चारों ओर-से स्पष्ट कर-करके बताया है।