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मुमुक्षुः- अब तो न करे तो अपनी ही मूर्खता है।
समाधानः- हाँ। स्वयं न समझे तो अपना ही कारण है।
मुमुक्षुः- आयुष्यके तीसरे भागमें पडे ऐसा कोई नियम है?
समाधानः- हाँ, तीसरे भागमें पडता है। आयुष्य हो उसके तीसरे भागमें पडता है। फिर न पडे तो बीचमें पडता है। आखिरमें आयुष्य पूरा होनेवाला हो उसके पहले पडे। ऐसा भी होता है।
मुमुक्षुः- उसके तीसरे समयमें।
समाधानः- हाँ, ऐसे पडता है। अष्टमी, चौदसी ऐसा नहीं।
मुमुक्षुः- आठ भव ही हो, ऐसा कोई नियम है?
समाधानः- हाँ, ऐसा नियम है।
मुमुक्षुः- लगातार आठ बार ही मिले।
समाधानः- हाँ, आठ। उससे ज्यादा नहीं होते।
समाधानः- ... एक ही करना है। उसके लिये सब (करना है)। आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न। दो तत्त्व भिन्न हैं, अनादिअनन्त। आत्मा ज्ञानस्वभाव-से भरा ज्ञायक वस्तु है। उसमें आनन्दादि गुण भरे हैं। उस आत्माको कैसे पहचाने? ये सब विकल्प राग- द्वेष कषाय आत्माका स्वरूप नहीं है। आत्माको उससे भिन्न करना। ये शरीर तो जड कुछ जानता नहीं। उन सबका भेदज्ञान कैसे हो, वह करने जैसा है।
जैसे पानी स्वभाव-से शीतल है, परन्तु अग्निके निमित्त-से उष्ण दिखता है। परन्तु उसका शीतल स्वभाव चला नहीं जाता। वैसे आत्मा स्वभाव-से निर्मल स्वभावी है। निर्मल स्वभाव है, परन्तु विभावमें जाता है न, इसलिये उसे राग-द्वेष कलुषितता दिखती है। परन्तु अंतरमें दृष्टि करे तो आत्मा वीतरागस्वरूप निर्मल स्वभाव शीतल स्वभाव है। उसे कैसे पहचानना? बस, वह करने जैसा है।
यथार्थ ज्ञान करे, यथार्थ विचार करके उसकी महिमा लगाये, लगन लगाये, उसका भेदज्ञान करे तो अंतरमें आगे जाना होता है। उसके लिये विचार, वांचन आदि करने जैसा है। शुभभाव जीवने अनन्त बार किये हैं, पुण्य बान्धा, देवलोकमें गया। परन्तु देवमें-से वापस आया। परिभ्रमण खडा रहा। अनन्त जन्म-मरण किये चार गतिमें, लेकिन भवका अभाव कैसे हो?
भवका अभाव तो शुद्धात्माको पहचाने तो होता है। अनन्त कालमें क्रियाएँ बहुत की, मुनिपना लिया, परन्तु अंतर आत्माको पहचाना नहीं, तो बाहर-से त्याग किया, सब किया। परन्तु आत्माको पहचाना नहीं। इसलिये मात्र पुण्यबन्ध हुआ, देवलोक हुआ। शुभभाव आये तो पुण्यबन्ध होता है, तो देवलोक होता है। परन्तु परिभ्रमण छूटता नहीं।