३०२ पुण्यभाव है, बीचमें पुण्यभाव आता है, परन्तु वह आत्माका स्वरूप नहीं है, ऐसे श्रद्धा बराबर करनी चाहिये। फिर देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आवे, शुभभाव आवे परन्तु मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसी श्रद्धा अंतरमें होनी चाहिये।
जैसा सिद्ध भगवानका स्वरूप है, वैसा मेरा स्वरूप है। वैसा मैं चैतन्य आत्मा हूँ। जैसा भगवानका स्वरूप है, वैसा चैतन्यका स्वरूप है। ऐसे पहचान करनी चाहिये। उसकी पहचान करे, उसमेें लीनता करे तो मुक्तिका मार्ग प्रगट हो। अंतरमें आत्माकी स्वानुभूति हो। और वह स्वानुभूति बढते-बढते फिर मुनिदशा आती है। ऐसे ही त्याग कर दे, मुनि हो जाय, सब करे, ऐसी क्रियाएँ अनन्त बार की, लेकिन भवका अभाव नहीं होता। भवका अभाव आत्माको पहचाने तो ही होता है।
... सब किया, लेकिन सम्यग्दर्शन कोई अपूर्व है। सम्यग्दर्शन हो, अंतरमें स्वानुभूति हो, आत्माका अनुभव हो, आत्माके आनन्दका वेदन हो। जैसा सिद्ध भगवानके आत्माका स्वरूप है, वैसा आंशिक वेदन सम्यग्दृष्टिको गृहस्थाश्रममें होता है। परन्तु वह अंतर- से न्यारा हो और अन्दर-से विरक्त हो, आत्माको पहचाने तो हो।
मुमुक्षुः- इतनी-इतनी महेनत करते हैं..
समाधानः- महेनत तो अंतरमें स्वयंको करनी पडती है। अंतरमें स्वयं विभाव- से भिन्न पडे, बाहरकी एकत्वबुद्धि टूटे, बाहरका रस टूट जाय, अंतरमें ही लगन लगे तो हो। बाहर जहाँ-तहाँ एकत्वबुद्धि और बाहरमें सब सर्वस्व मान ले, बाहर कैसे अच्छा हो? शरीरका कैसे अच्छा हो? कुटुम्बका, यह-वह, सबमें एकत्वबुद्धि है। एकत्वबुद्धि टूटे, अंतरमें वीतराग... बाहरसे सब छूट नहीं जाता, परन्तु अंतरमें-से वह न्यारा हो जाता है। रस कम हो जाय।
तप, सच्चा तप तो अंतरमें आत्माका सच्चा स्वरूप है, उसे पहचाने। आत्मा जाननेवाला है उसे पहचानकर अन्दर तीक्ष्णता (करे), अन्दर लीनता और तीक्ष्णता करे तो वह तप होता है। और उसके साथ शुभभाव आवे, इसलिये मैं यह त्याग करुँ, आहार छोडूँ, ऐसा विकल्प आये, उस शुभभाव-से पुण्यबन्ध होता है। परन्तु अंतरमें स्वानुभूति होकर अंतरमें आत्माको पहचाने और आत्माकी अन्दर उग्रता हो, आत्माका स्वरूप समझमें आये और अन्दरमें लीनता हो तो वह सच्चा तप अंतरमें होता है। बाहर- से मात्र आहार छोड दे और विकल्प तो कहाँ-कहाँ भटकते हो। तो वह सच्चा तप नहीं होता है। शुभभाव, अच्छे भाव करे तो पुण्यबन्ध होता है। तो अच्छा भव मिले।
... तप किया था, वे अंतरमें ऊतर गये। आत्माकी स्वानुभूतिपूर्वक। फिर आहारका विकल्प भी नहीं आता है। आत्माके आनन्दमें ऐसे रहते हैं कि उन्हें विकल्प भी नहीं आता है। विस्मृत हो जाता है। शरीर भिन्न और आत्मा भिन्न। आहारका भी