२३४
विकल्प नहीं आता है। आत्माके आनन्दमें रहे, वह सच्चा तप कहनेमें आता है। बाकी अन्दर जबरजस्ती करता रहे, क्रिया छोडता रहे तो वह तो मात्र बाहरका तप होता है। सच्चा तप नहीं होता है। ऐसे समझना चाहिये कि सच्चा तप अंतरमें है।
भगवानने जो तप किया वह, आत्माके आनन्दमें (रहकर किया)। विकल्प भी नहीं आता। शरीर भिन्न और आत्मा भिन्न। उन्हें ख्याल भी नहीं है, इस तरह आत्मामें ऊतर जाते हैं। उसका नाम अंतरमें समरस प्रगट हुआ, उसका नाम सामायिक। सब अंतरमें होता है। बाहर-से क्रिया करके बैठे और मन बाहर भटकता हो तो वह सच्ची सामायिक नहीं होती।
सामायिक तो अंतरमें भेदज्ञान करके आत्माको पहचाने और अंतरमें स्थिर हो तो सच्ची सामायिक होती है। .. परिणाम हो उस पर पडता है। मन कहीं दूसरेमें भटकता हो, तो उस सामायिकका फल नहीं आता। जैसा भाव हो वैसा बन्धन होता है। परन्तु उससे भिन्न आत्माको पहचाने तो उसे मोक्ष होता है। मनुष्यभव मुश्किलसे मिले, उसमें आत्माको पहचाने तो सफल है।